वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे—खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था। जगह-जगह पर ये गोश्त जिसको देखकर मसऊद के ठंडे गालों पर गर्मी की लहरें-सी दौड़ जाती थीं, फड़क रहा था, जैसे कभी-कभी उसकी आँख फड़का करती थीं।
उस वक़्त सवा नौ बजे होंगे मगर झुके हुए ख़ाकसतरी बादलों के बाइस ऐसा मालूम होता था कि बहुत सवेरा है। सर्दी में शिद्दत नहीं थी, लेकिन राह चलते आदमियों के मुँह से गर्म-गर्म समावार की टोंटियों की तरह गाढ़ा सफ़ेद धुआँ निकल रहा था। हर शय बोझल दिखायी देती थी जैसे बादलों के वज़न के नीचे दबी हुई है। मौसम कुछ ऐसी ही कैफ़ियत का हामिल था जो रबड़ के जूते पहनकर चलने से पैदा होती हो। इसके बावजूद कि बाज़ार में लोगों की आमद-ओ-रफ़्त जारी थी और दुकानों में ज़िंदगी के आसार पैदा हो चुके थे, आवाज़ें मद्धम थीं। जैसे सरगोशियाँ हो रही हैं, चुपके-चुपके, धीरे-धीरे बातें हो रही हैं, हौले-हौले लोग क़दम उठा रहे हैं कि ज़्यादा ऊँची आवाज़ पैदा न हो।
मसऊद बग़ल में बस्ता दबाए स्कूल जा रहा था। आज उसकी चाल भी सुस्त थी। जब उसने बेखाल के ताज़ा ज़बह किए हुए बकरों के गोश्त से सफ़ेद-सफ़ेद धुआँ उठता देखा तो उसे राहत महसूस हुई। उस धुएँ ने उसके ठंडे-ठंडे गालों पर गर्म-गर्म लकीरों का एक जाल-सा बुन दिया। उस गर्मी ने उसे राहत पहुँचायी और वो सोचने लगा कि सर्दियों में ठंडे यख़ हाथों पर बेद खाने के बाद अगर ये धुआँ मिल जाया करे तो कितना अच्छा हो।
फ़िज़ा में उजलापन नहीं था। रोशनी थी मगर धुँधली। कुहर की एक पतली-सी तह हर शय पर चढ़ी हुई थी जिससे फ़िज़ा में गदलापन पैदा हो गया था। ये गदलापन आँखों को अच्छा मालूम होता था इसलिए कि नज़र आने वाली चीज़ों की नोक-पलक कुछ मद्धम पड़ गई थी।
मसऊद जब स्कूल पहुँचा तो उसे अपने साथियों से ये मालूम करके क़तई तौर पर ख़ुशी न हुई कि स्कूल सिकंदर साहब की मौत के बाइस बंद कर दिया गया है। सब लड़के ख़ुश थे जिसका सबूत ये था कि वो अपने बस्ते एक जगह पर रखकर स्कूल के सहन में ऊटपटाँग खेलों में मशग़ूल थे। कुछ छुट्टी का पता मालूम करते ही घर चले गए। कुछ आ रहे थे और कुछ नोटिस बोर्ड के पास जमा थे और बार-बार एक ही इबारत पढ़ रहे थे।
मसऊद ने जब सुना कि सिकंदर साहब मर गए हैं तो उसे बिल्कुल अफ़सोस न हुआ। उसका दिल जज़्बात से बिल्कुल ख़ाली था। अलबत्ता उसने ये ज़रूर सोचा कि पिछले बरस जब उसके दादा जान का इंतिक़ाल इन्हीं दिनों में हुआ तो उनका जनाज़ा ले जाने में बड़ी दिक्कत हुई थी इसलिए कि बारिश शुरू हो गई थी। वो भी जनाज़े के साथ गया था और क़ब्रिस्तान में चिकनी कीचड़ के बाइस ऐसा फिसला था कि खुदी हुई क़ब्र में गिरते-गिरते बचा था।
ये सब बातें उसको अच्छी तरह याद थीं। सर्दी की शिद्दत, उसके कीचड़ से लथपथ कपड़े, सुर्ख़ी माइल नीले हाथ जिनको दबाने से सफ़ेद-सफ़ेद धब्बे पड़ जाते थे। नाक जो कि बर्फ़ की डली मालूम होती थी और फिर आकर हाथ-पाँव धोने और कपड़े बदलने का मरहला… ये सब कुछ उसको अच्छी तरह याद था, चुनांचे जब उसने सिकंदर साहब की मौत की ख़बर सुनी तो उसे ये बीती हुई बातें याद आ गईं और उसने सोचा, जब सिकंदर साहब का जनाज़ा उठेगा तो बारिश शुरू हो जाएगी और क़ब्रिस्तान में इतनी कीचड़ हो जाएगी कि कई लोग फिसलेंगे और उनको ऐसी चोटें आएँगी कि बिलबिला उठेंगे।
मसऊद ने ये ख़बर सुनकर सीधा अपने कमरे का रुख़ किया। कमरे में पहुँचकर उसने अपने डेस्क का ताला खोला। दो-तीन किताबें जो कि उसे दूसरे रोज़ फिर लाना थीं, उसमें रखीं और बाक़ी बस्ता उठाकर घर की जानिब चल पड़ा।
रास्ते में उसने फिर वही दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे देखे। उनमें से एक को अब कसाई ने लटका दिया था, दूसरा तख़्ते पर पड़ा था। जब मसऊद दुकान पर से गुज़रा तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो गोश्त को—जिसमें से धुआँ उठ रहा था—छूकर देखे, चुनांचे आगे बढ़कर उसने उंगली से बकरे के उस हिस्से को छूकर देखा जो अभी तक फड़क रहा था, गोश्त गर्म था। मसऊद की ठंडी उँगली को ये हरारत बहुत भली मालूम हुई। कसाई दुकान के अंदर छुरियाँ तेज़ करने में मसरूफ़ था। चुनांचे मसऊद ने एक बार फिर गोश्त को छूकर देखा और वहाँ से चल पड़ा।
घर पहुँचकर उसने जब अपनी माँ को सिकंदर साहब की मौत की ख़बर सुनायी तो उसे मालूम हुआ कि उसके अब्बा जी उन्हीं के जनाज़े के साथ गए हैं। अब घर में सिर्फ़ दो आदमी थे, माँ और बड़ी बहन। माँ बावर्चीख़ाने में बैठी सालन पका रही थी और बड़ी बहन कुलसूम पास ही एक कांगड़ी लिए दरबारी की सरगम याद कर रही थी।
चूँकि गली के दूसरे लड़के गर्वनमेंट स्कूल में पढ़ते थे, जिस पर इस्लामिया स्कूल के सिकंदर की मौत का कुछ असर नहीं पड़ा था, इसलिए मसऊद ने ख़ुद को बिल्कुल बेकार महसूस किया। स्कूल का कोई काम भी नहीं था। छठी जमात में जो कुछ पढ़ाया जाता है, वो घर में अपने अब्बा जी से पढ़ चुका था। खेलने के लिए भी उसके पास कोई चीज़ न थी।
एक मैला-कुचैला ताश ताक़ में पड़ा था मगर उससे मसऊद को कोई दिलचस्पी नहीं थी। लूडो और इसी क़िस्म के दूसरे खेल जो उसकी बड़ी बहन अपनी सहेलियों के साथ हर रोज़ खेलती थी, उसकी समझ से बालातर थे। समझ से बालातर यूँ थे कि मसऊद ने कभी उनको समझने की कोशिश ही नहीं की थी। उसको फ़ितरतन ऐसे खेलों से कोई लगाव नहीं था।
बस्ता अपनी जगह पर रखने और कोट उतारने के बाद वो बावर्चीख़ाने में अपनी माँ के पास बैठ गया और दरबारी की सरगम सुनता रहा जिसमें कई दफ़ा सा-रे-गा-मा आता था। उसकी माँ पालक काट रही थी। पालक काटने के बाद उसने सब्ज़-सब्ज़ पत्तों का गीला-गीला ढेर उठाकर हंडिया में डाल दिया। थोड़ी देर के बाद जब पालक को आँच लगी तो उसमें से सफ़ेद-सफ़ेद धुआँ उठने लगा। उस धुएँ को देखकर मसऊद को बकरे का गोश्त याद आ गया।
चुनांचे उसने अपनी माँ से कहा, “अम्मी जान, आज मैंने क़साई की दुकान पर दो बकरे देखे। खाल उतरी हुई थी और उनमें से धुआँ निकल रहा था बिल्कुल ऐसे ही जैसा कि सुबह सवेरे मेरे मुँह से निकला करता है।”
“अच्छा…!” ये कहकर उसकी माँ चूल्हे में लकड़ियों के कोयले झाड़ने लगी।
“हाँ और मैंने गोश्त को अपनी उँगली से छूकर देखा तो वो गर्म था।”
“अच्छा…!” ये कहकर उसकी माँ ने वो बर्तन उठाया जिसमें उसने पालक का साग धोया था और बावर्चीख़ाने से बाहर चली गई।
“और ये गोश्त कई जगह पर फड़कता भी था।”
“अच्छा…” मसऊद की बड़ी बहन ने दरबारी सरगम याद करना छोड़ दी और उसकी तरफ़ मुतवज्जा हुई, “कैसे फड़कता था?”
“यूँ… यूँ।” मसऊद ने उँगलियों से फड़कन पैदा करके अपनी बहन को दिखायी।
“तो फिर क्या हुआ?”
ये सवाल कुलसूम ने अपने सरगम भरे दिमाग़ से कुछ इस तौर पर निकाला कि मसऊद एक लहज़े के लिए बिल्कुल ख़ालीउज़्ज़हन हो गया, “फिर क्या होना था, मैंने तो ऐसे ही आपसे बात की थी कि क़साई की दुकान पर गोश्त फड़क रहा था। मैंने उँगली से छूकर भी देखा था, गर्म था।”
“गर्म था… अच्छा मसऊद ये बताओ, तुम मेरा एक काम करोगे।”
“बताइए।”
“आओ, मेरे साथ आओ।”
“नहीं आप पहले बताइए, काम क्या है।”
“तुम आओ तो सही, मेरे साथ।”
“जी नहीं… आप पहले काम बताइए।”
“देखो मेरी कमर में बड़ा दर्द हो रहा है… मैं पलंग पर लेटती हूँ, तुम ज़रा पाँव से दबा देना… अच्छे भाई जो हुए। अल्लाह की क़सम बड़ा दर्द हो रहा है।” ये कहकर मसऊद की बहन ने अपनी कमर पर मुक्कियाँ मारना शुरू कर दीं।
“ये आपकी कमर को क्या हो जाता है। जब देखो दर्द हो रहा है, और फिर आप दबवाती भी मुझ ही से हैं, क्यों नहीं अपनी सहेलियों से कहतीं।” मसऊद उठ खड़ा हुआ। “चलिए, लेकिन ये आप से कहे देता हूँ कि दस मिनट से ज़्यादा मैं बिल्कुल नहीं दबाऊँगा।”
“शाबाश… शाबाश।” उसकी बहन उठ खड़ी हुई और सरगमों की कापी सामने ताक़ में रखकर उस कमरे की तरफ़ रवाना हुई जहाँ वो और मसऊद दोनों सोते थे।
सहन में पहुँचकर उसने अपनी दुखती हुई कमर सीधी की और ऊपर आसमान की तरफ़ देखा। मटियाले बादल झुके हुए थे, “मसऊद, आज ज़रूर बारिश होगी।” ये कहकर उसने मसऊद की तरफ़ देखा मगर वो अंदर अपनी चारपाई पर लेटा था।
जब कुलसूम अपने पलंग पर औंधे मुँह लेट गई तो मसऊद ने उठकर घड़ी में वक़्त देखा, “देखिए बाजी, ग्यारह बजने में दस मिनट बाक़ी हैं। मैं पूरे ग्यारह बजे आपकी कमर दाबना छोड़ दूँगा।”
“बहुत अच्छा, लेकिन तुम अब ख़ुदा के लिए ज़्यादा नख़रे न बघारो। इधर मेरे पलंग पर आकर जल्दी कमर दबाओ वर्ना याद रखो बड़े ज़ोर से कान ऐंठूँगी।” कुलसूम ने मसऊद को डाँट पिलायी।
मसऊद ने अपनी बड़ी बहन के हुक्म की तामील की और दीवार का सहारा लेकर पाँव से उसकी कमर दबाना शुरू कर दी। मसऊद के वज़न के नीचे कुलसूम की चौड़ी चकली कमर में ख़फ़ीफ़-सा झुकाव पैदा हो गया। जब उसने पैरों से दबाना शुरू किया, ठीक उसी तरह जिस तरह मज़दूर मिट्टी गूँधते हैं तो कुलसूम ने मज़ा लेने की ख़ातिर हौले-हौले हाय-हाय करना शुरू किया।
कुलसूम के कूल्हों पर गोश्त ज़्यादा था, जब मसऊद का पाँव उस हिस्से पर पड़ा तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि वो उस बकरे के गोश्त को दबा रहा है जो उसने क़साई की दुकान में अपनी उँगली से छूकर देखा था। इस एहसास ने चंद लमहात के लिए उसके दिल-ओ-दिमाग़ में ऐसे ख़यालात पैदा किए जिनका कोई सर था न पैर, वो उनका मतलब न समझ सका और समझता भी कैसे जबकि कोई ख़याल मुकम्मल नहीं था।
एक-दो बार मसऊद ने ये भी महसूस किया कि उसके पैरों के नीचे गोश्त के लोथड़ों में हरकत पैदा हुई है, उसी क़िस्म की हरकत जो उसने बकरे के गर्म-गर्म गोश्त में देखी थी। उसने बड़ी बददिली से कमर दबाना शुरू की थी मगर अब उसे इस काम में लज़्ज़त महसूस होने लगी। उसके वज़न के नीचे कुलसूम हौले-हौले कराह रही थी। ये भिंची-भिंची आवाज़ जो कि मसऊद के पैरों की हरकत का साथ दे रही थी, इस गुमनाम-सी लज़्ज़त में इज़ाफ़ा कर रही थी।
टाइम पीस में ग्यारह बज गए मगर मसऊद अपनी बहन कुलसूम की कमर दबाता रहा। जब कमर अच्छी तरह दबायी जा चुकी तो कुलसूम सीधी लेट गई और कहने लगी, “शाबाश मसऊद, शाबाश। लो अब लगे हाथों टाँगें भी दबा दो, बिल्कुल उसी तरह… शाबाश मेरे भाई।”
मसऊद ने दीवार का सहारा लेकर कुलसूम की रानों पर जब अपना पूरा वज़न डाला तो उसके पाँव के नीचे मछलियाँ-सी तड़प गईं। बेइख़्तयार वो हँस पड़ी और दुहरी हो गई। मसऊद गिरते-गिरते बचा, लेकिन उसके तलवों में मछलियों की वो तड़प मुंजमिद सी हो गई। उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो फिर इसी तरह दीवार का सहारा लेकर अपनी बहन की रानें दबाए, चुनांचे उसने कहा, “ये आपने हँसना क्यों शुरू कर दिया। सीधी लेट जाइए, मैं आपकी टाँगें दबा दूँ।”
कुलसूम सीधी लेट गई। रानों की मछलियाँ इधर-उधर होने के बाइस जो गुदगुदी पैदा हुई थी, उसका असर अभी तक उसके जिस्म में बाक़ी था, “ना भाई, मेरे गुदगुदी होती है। तुम ऊटपटाँग तरीक़े से दबाते हो।”
मसऊद ने ख़याल किया कि शायद उसने ग़लत तरीक़ा इस्तेमाल किया है। “नहीं, अब की दफ़ा मैं पूरा बोझ आप पर नहीं डालूँगा… आप इत्मिनान रखिए। अब ऐसी अच्छी तरह दबाऊँगा कि आपको कोई तकलीफ़ न होगी।”
दीवार का सहारा लेकर मसऊद ने अपने जिस्म को तोला और इस अंदाज़ से आहिस्ता-आहिस्ता कुलसूम की रानों पर अपने पैर जमाए कि उसका आधा बोझ कहीं ग़ायब हो गया।
हौले-हौले बड़ी होशयारी से उसने अपने पैर चलाने शुरू किए। कुलसूम की रानों में अकड़ी हुई मछलियाँ उसके पैरों के नीचे दब-दबकर इधर-उधर फिसलने लगीं। मसऊद ने एक बार स्कूल में तने हुए रस्से पर एक बाज़ीगर को चलते देखा था। उसने सोचा कि बाज़ीगर के पैरों के नीचे तना हुआ रस्सा इसी तरह फिसलता होगा।
इससे पहले कई बार उसने अपनी बहन कुलसूम की टाँगें दबायी थीं मगर वो लज़्ज़त जो कि उसे अब महसूस हो रही थी, पहले कभी महसूस नहीं हुई थी। बकरे के गर्म-गर्म गोश्त का उसे बार-बार ख़याल आता था। एक-दो मर्तबा उसने सोचा, कुलसूम को अगर ज़बह कर दिया जाए तो खाल उतर जाने पर क्या इसके गोश्त में से भी धुआँ निकलेगा? लेकिन ऐसी बेहूदा बातें सोचने पर उसने अपने आपको मुजरिम महसूस किया और दिमाग़ को इस तरह साफ़ कर दिया जैसे वो स्लेट को स्फ़ंज से साफ़ किया करता था।
“बस बस।” कुलसूम थक गई, “बस बस।”
मसऊद को एकदम शरारत सूझी। वो पलंग पर से नीचे उतरने लगा तो उसने कुलसूम की दोनों बग़लों में गुदगुदी करना शुरू कर दी। हँसी के मारे वो लोटपोट हो गई। उसमें इतनी सकत नहीं थी कि वो मसऊद के हाथों को परे झटक दे। लेकिन जब उसने इरादा करके उसके लात जमानी चाही तो मसऊद उछलकर ज़द से बाहर हो गया और स्लीपर पहनकर कमरे से निकल गया।
जब वो सहन में दाख़िल हुआ तो उसने देखा कि हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी हो रही है। बादल और भी झुक आए थे। पानी के नन्हे-नन्हे क़तरे आवाज़ पैदा किए बग़ैर सहन की ईंटों में आहिस्ता-आहिस्ता जज़्ब हो रहे थे। मसऊद का जिस्म एक दिल-नवाज़ हरारत महसूस कर रहा था। जब हवा का ठंडा-ठंडा झोंका उसके गालों के साथ मस हुआ और दो-तीन नन्ही-नन्ही बूँदें उसकी नाक पर पड़ीं तो एक झुरझुरी-सी उसके बदन में लहरा उठी।
सामने कोठे की दीवार पर एक कबूतर और कबूतरी पास-पास पर फुलाए बैठे थे, ऐसा मालूम होता था कि दोनों दम-पुख़्त की हुई हंडिया की तरह गर्म हैं। गुल दाऊदी और नाज़बू के हरे-हरे पत्ते ऊपर लाल-लाल गमलों में नहा रहे थे। फ़िज़ा में नींदें घुली हुई थीं, ऐसी नींदें जिनमें बेदारी ज़्यादा होती है और इंसान के इर्द-गिर्द नर्म-नर्म ख़्वाब यूँ लिपट जाते हैं जैसे ऊनी कपड़े।
मसऊद ऐसी बातें सोचने लगा जिनका मतलब उसकी समझ में नहीं आता था। वो उन बातों को छूकर देख सकता था मगर उनका मतलब उसकी गिरफ़्त से बाहर था, फिर भी एक गुमनाम-सा मज़ा इस सोच-विचार में उसे आ रहा था।
बारिश में कुछ देर खड़े रहने के बाइस जब मसऊद के हाथ बिल्कुल यख़ हो गए और दबाने से उन पर सफ़ेद धब्बे पड़ने लगे तो उसने मुठ्ठियाँ कस लीं और उनको मुँह की भाप से गर्म करना शुरू किया। हाथों को इस अमल से कुछ गर्मी तो पहुँची मगर वो नम-आलूद हो गए। चुनांचे आग तापने के लिए वो बावर्चीख़ाने में चला गया। खाना तैयार था, अभी उसने पहला लुक़मा ही उठाया था कि उसका बाप क़ब्रिस्तान से वापस आ गया।
बाप-बेटे में कोई बात न हुई। मसऊद की माँ उठकर फ़ौरन दूसरे कमरे में चली गई और वहाँ देर तक अपने ख़ाविंद के साथ बातें करती रही।
खाने से फ़ारिग़ होकर मसऊद बैठक में चला गया और खिड़की खोलकर फ़र्श पर लेट गया। बारिश की वजह से सर्दी की शिद्दत बढ़ गई थी क्योंकि अब हवा भी चल रही थी, मगर ये सर्दी नाख़ुशगवार मालूम नहीं होती थी। तालाब के पानी की तरह ये ऊपर ठंडी और अंदर गर्म थी।
मसऊद जब फ़र्श पर लेटा तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो इस सर्दी के अंदर धँस जाए जहाँ उसके जिस्म को राहत अंगेज़ गर्मी पहुँचे। देर तक वो ऐसी शीर-गर्म बातों के मुतअल्लिक़ सोचता रहा जिसके बाइस उसके पुट्ठों में हल्की-हल्की-सी दुखन पैदा हो गई।
एक-दो बार उसने अंगड़ाई ली तो उसे मज़ा आया। उसके जिस्म के किसी हिस्से में, ये उसको मालूम नहीं था कि कहाँ, कोई चीज़ अटक-सी गई थी, ये चीज़ क्या थी। इसके मुतअल्लिक़ भी मसऊद को इल्म नहीं था। अलबत्ता इस अटकाव ने उसके सारे जिस्म में इज़तिराब, एक दबे हुए इज़तिराब की कैफ़ियत पैदा कर दी थी। उसका सारा जिस्म खिंचकर लम्बा हो जाने का इरादा बन गया था।
देर तक गुदगुदे क़ालीन पर करवटें बदलने के बाद वो उठा और बावर्चीख़ाने से होता हुआ सहन में आ निकला। न कोई बावर्चीख़ाने में था और न सहन में। इधर-उधर जितने कमरे थे, सबके सब बंद थे। बारिश अब रुक गई थी। मसऊद ने हॉकी और गेंद निकाली और सहन में खेलना शुरू कर दिया। एक बार जब उसने ज़ोर से हिट लगायी तो गेंद सहन के दाएँ हाथ वाले कमरे के दरवाज़े पर लगी। अंदर से मसऊद के बाप की आवाज़ आयी, “कौन?”
“जी, मैं हूँ मसऊद!”
अंदर से आवाज़ आयी, “क्या कर रहे हो?”
“जी, खेल रहा हूँ।”
“खेलो…” फिर थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद उसके बाप ने कहा, “तुम्हारी माँ मेरा सर दबा रही है… ज़्यादा शोर न मचाना।”
ये सुनकर मसऊद ने गेंद वहीं पड़ी रहने दी और हॉकी हाथ में लिए सामने वाले कमरे का रुख़ किया। उसका एक दरवाज़ा बंद था और दूसरा नीम-वा… मसऊद को एक शरारत सूझी। दबे पाँव वो नीम-वा दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा और धमाके के साथ दोनों पट खोल दिए। दो चीख़ें बुलंद हुईं और कुलसूम और उसकी सहेली बिमला ने जो कि पास-पास लेटी थीं, ख़ौफ़ज़दा होकर झट से लिहाफ़ ओढ़ लिया।
बिमला के ब्लाउज़ के बटन खुले हुए थे और कुलसूम उसके उर्यां सीने को घूर रही थी।
मसऊद कुछ समझ न सका, उसके दिमाग़ में धुआँ-सा छा गया। वहाँ से उल्टे क़दम लौटकर वो जब बैठक की तरफ़ रवाना हुआ तो उसे मअन अपने अंदर एक अथाह ताक़त का एहसास हुआ, जिसने कुछ देर के लिए उसकी सोचने-समझने की क़ुव्वत बिल्कुल कमज़ोर कर दी।
बैठक में खिड़की के पास बैठकर जब मसऊद ने हॉकी को दोनों हाथों से पकड़कर घुटने पर रखा तो ये सोचा कि हल्का-सा दबाव डालने पर हॉकी में ख़म पैदा हो जाएगा, और ज़्यादा ज़ोर लगाने पर हैंडल चटाख़ से टूट जाएगा। उसने घुटने पर हॉकी के हैंडल में ख़म तो पैदा कर लिया मगर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर लगाने पर भी वो टूट न सका। देर तक वो हॉकी के साथ कुश्ती लड़ता रहा। जब वो थककर हार गया तो झुँझलाकर उसने हॉकी परे फेंक दी।
मंटो की कहानी 'औरत ज़ात'