कल रात मैंने चश्मे के टूटे हुए काँच को जोड़ते हुए महसूस किया कि टूटे हुए को जोड़ना बहुत धैर्य का काम है। इसके लिए एकाग्रता चाहिए। वक़्त चाहिए। मन चाहिए। हाँ, हर टूटी चीज़ नहीं जुड़ती लेकिन कुछ चीज़ें हैं जिन्हें जोड़ा जा सकता है। हमें वक़्त निकालकर अपने आसपास इन टूटी हुईं चीज़ों को देखना चाहिए। टूटे हुए को जोड़ने में सृजनात्मक आनंद मिलता है। यक़ीन न हो तो आप किसी बच्चे को अपना टूटा हुआ खिलौना जोड़ते हुए देखिए और जुड़ जाने के बाद उसकी आँखों में देखिए। आपको भरोसा हो जाएगा कि मैं सच कह रहा हूँ।

हम ऐसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं कि कहीं कुछ सूझ नहीं रहा। साँसें टूट रही हैं। लोग टूट रहे हैं। वक़्त से पहले अपने छूट रहे हैं। अपनी स्मृति पर ज़ोर देता हूँ तो मुझे मोहन राणा की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं, जिसमें वे लिखते हैं—

“एक पैबंद कहीं जोड़ना
कि बन जाए कोई दरवाज़ा
इस सदी को रास्ता नहीं मिल रहा समय की अंधी गली में…”

* * *

आज कई दिनों के बाद हाथ में एक पर्ची लिए हॉस्टल से बाहर निकला हूँ। जे.एन.यू के मुख्य द्वार से लगभग दो सौ मीटर अंदर की ओर आने पर आपको एक छोटा-सा मार्केट मिलेगा। के.सी मार्केट। परिसर में रहने वाले लोगों के लिए यह काफ़ी सुविधाजनक है कि दैनिक कामकाज़ की मूलभूत चीज़ें यहाँ आसानी से मिल जाती हैं। वहीं पीछे पश्चिम दिशा में एक ओपन थिएटर है जहाँ कभी-कभी कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम या नाटकों का मंचन होता था। इन दिनों परिसर अपनी निर्जनता के लिए समय को कोस रहा है। सड़कें उदास हैं। अमलतास खिलकर झर रहा है। सरस्वतीपुरम की दिशा में ग़ुस्से से लाल तमतमाया सूरज डूब रहा है। पंछियों का झुण्ड लौट रहा है अपने-अपने घोंसले की तरफ़। हवाई जहाज़ को बहुत पास से आसमान में गुज़रते हुए देख रहा हूँ। जिसे देखना यहाँ आम बात है। यहाँ रहते हुए आपको इसके शोर की भी आदत हो जाएगी।

साल-भर से ऊपर हो गया है। महामारी के कारण दायरा इतना सीमित हो गया है कि अब अकेलेपन की भी आदत हो गई है। शुरू-शुरू में लगा मुश्किल है, इस तरह थोपे गए एकांत को जीना, लेकिन जीते-जीते इसकी भी आदत हो गई है। कभी-कभी सोचता हूँ भीड़ का सामना कैसे करूँगा? किसी ने सही ही कहा है, हम सभी अपनी आदतों के ग़ुलाम हैं। वक़्त अपने हिसाब से चल रहा है। मैं बेवक़्त हो गया हूँ। सोना, जागना सब बेवक़्त हो गया है। तारीख़ें बदल रही हैं। दिन बदल रहा है। सुबह होती है, शाम होती है, इनका होना बस होना है। इंतज़ार बेमानी-सा लगने लगा है। गुलज़ार ने क्या ख़ूब फ़रमाया है—

“साँस लेना भी कैसी आदत है
जिए जाना भी क्या रिवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पाँव बेहिस हैं चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
कितने बरसों से कितनी सदियों से
जिए जाते हैं जिए जाते हैं
आदतें भी अजीब होती हैं…”

* * *

रात-भर बारिश होती रही। सब कुछ धुल गया है। पत्ते चमक रहे हैं। आसमान साफ़ है। दोपहर होने को है, नींद नहीं आयी। रात-भर बालकनी से रूम, रूम से बालकनी में भटकता रहा। आसमान से बूँदें गिरती रहीं। मैं संगीत-सा कुछ महसूसता रहा।

हॉस्टल का यह छोटा-सा कमरा लगभग चार सालों से दिल्ली में मेरा अस्थायी पता है। यहाँ से जाते हुए, रह जाऊँगा थोड़ा यहीं। जिससे मिलने कभी-कभी आऊँगा स्मृतियों के दरवाज़े से। हाँ, यह सच है हम जहाँ रहते हैं, वहाँ से जाने के बाद, थोड़ा रह जाते हैं वहीं। आदमी एक समय में पूरा का पूरा नहीं होता कहीं। वह होता है—थोड़ा बचपन में, थोड़ा सफ़र में, और थोड़ा भविष्य में। इस समय हम सभी इंतज़ार में हैं और हमारे स्वप्न समय दोष के प्रभाव में।

मृत्यु
ओ मृत्यु!
अपनी उपस्थिति पर रोओ
कि पूरी पृथ्वी रो रही है
एक साथ।

* * *

मैं मुड़कर पीछे चलता हूँ और उस मोड़ पर जाकर ठहर जाता हूँ, जहाँ से तुम आगे बढ़ गईं और मैं तुम्हारी पीठ को ओझल होने तक देखता रहा। कहते हैं गंध में प्रेम की स्मृतियाँ गुम्फित होती हैं। बारिश जब भी आती है, मैं तुम्हारी गंध को महसूस करता हूँ। बारिश के बाद की ख़ामोशी चुभ रही है। एक सम्मोहन था जो ख़त्म हो गया। मन उदास है। बारिश का साथ मेरे अकेलेपन को बाँट रहा था। अब फिर से वही सूनापन। वही चुप्पी। बारिश कभी अकेले नहीं आती, वह अपने साथ यादों की एक ट्रेन लेकर आती है। बूँदें गिरती रहती हैं और मन भीगता रहता है।

शरीर थकता है तो नींद आती है। मन थकता है तो नींद नहीं आती, याद आती है। याद आती है अपनों की। अपने, जो बग़ैर किसी जल्दबाज़ी में आपको सुनते हैं। समझने की कोशिश करते हैं। आपकी खीझ, आपकी ख़ामोशी को समझते हुए आपको दुःख से उबार ले जाते हैं। आपके दुःख में भी वे उतने ही शरीक होते हैं जितना आपके सुख में।

व्यवहारिकता की आड़ लेकर आप भले सीढ़ियाँ चढ़ लें, लेकिन हर सीढ़ी चढ़ते हुए आप देखने, सुनने और कहने की क्षमता खोते जाते हैं। वहाँ आपको सुनने वाला भी कोई नहीं होता। दूर ऊँचाई पर जाकर जब आप पुकारेंगे किसी का नाम तो वहाँ वह नहीं लौटता। आपके पुकार की प्रतिध्वनि लौटती है, और धीरे-धीरे वह भी खो जाती है। इस लालची भीड़ में हमें अपनी आत्मा को बचाए रखना उतना ही ज़रूरी है जितना ज़रूरी है साँस लेना। बाहर सब कुछ थिर है, शांत है। अंधेरा घुल चुका है प्रकाश में। रात हो गई है। एक और दिन बीत गया। ज़ुबान पर एक गीत है—

“ओ री चिरैया
नन्ही-सी चिड़िया
अँगना में फिर आजा रे…”

'बिखरा-बिखरा, टूटा-टूटा : कुछ टुकड़े डायरी के - सभी भाग यहाँ पढ़ें'

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गौरव भारती
जन्म- बेगूसराय, बिहार | संप्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मुंशी सिंह महाविद्यालय, मोतिहारी, बिहार। इन्द्रप्रस्थ भारती, मुक्तांचल, कविता बिहान, वागर्थ, परिकथा, आजकल, नया ज्ञानोदय, सदानीरा,समहुत, विभोम स्वर, कथानक आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित | ईमेल- [email protected] संपर्क- 9015326408