दिल पीत की आग में जलता है, हाँ जलता रहे, उसे जलने दो
इस आग से लोगों दूर रहो, ठण्डी न करो, पंखा न झलो
हम रात दिना यूँ ही घुलते रहें, कोई पूछे कि हम को ना पूछे
कोई साजन हो या दुश्मन हो, तुम ज़िक्र किसी का मत छेड़ो
सब जान के सपने देखते हैं, सब जान के धोखे खाते हैं
ये दीवाने सादा ही सही पर इतने भी सादा नहीं यारो
किस बैठी तपिश के मालिक हैं, ठिठुरी हुई आग के अंगियारे
तुमने कभी सेंका ही नहीं, तुम क्या समझो, तुम क्या जानो
दिल पीत की आग में जलता है, हाँ जलता है, इसे जलने दो
इस आग से तुम तो दूर रहो, ठण्डी न करो पंखा न झलो
हर महफ़िल में हम दोनों की क्या-क्या नहीं बातें होती हैं
इन बातों का मफ़्हूम है क्या, तुम क्या समझो, तुम क्या जानो
दिल चल के लबों तक आ न सका, लब खुल न सके ग़म जा न सका
अपना तो बस इतना क़िस्सा था, तुम अपनी सुनाओ, अपनी कहो
वो शाम कहाँ, वो रात कहाँ, वो वक़्त कहाँ, वो बात कहाँ
जब मरते थे मरने न दिया, अब जीते हैं अब जीने दो
दिल पीत की आग में जलता है, हाँ जलता रहे, इसे जलने दो
इस आग से ‘इंशा’ दूर रहो, ठण्डी न करो, पंखा न झलो
लोगों की तो बातें सच्ची हैं और दिल का भी कहना-करना हुआ
पर बात हमारी मानो तो या उन के बनो या अपने रहो
राही भी नहीं, रहज़न भी नहीं, बिजली भी नहीं, ख़िरमन भी नहीं
ऐसा भी भला होता है कहीं, तुम भी तो अजब दीवाने हो
इस खेल में हर बात अपनी कहाँ, जीत अपनी कहाँ, मात अपनी कहाँ
या खेल से यकसर उठ जाओ या जाती बाज़ी जाने दो
दिल पीत की आग में जलता है, हाँ जलता रहे, उसे जलने दो
इस आग से लोगों दूर रहो, ठण्डी न करो, पंखा न झलो…
इब्ने इंशा की कविता 'इक बार कहो तुम मेरी हो'