आदमी मज़बूत मगर मजबूर प्राणी है। कई नमूने हैं उसके। कुछ दिमाग़ वाले, कुछ बिना दिमाग़ के, कुछ पौन दिमाग़ के, कुछ पाव दिमाग़ के। बिना दिमाग़ के लोग शुद्ध आदमी होते हैं। वे दूसरों का दिमाग़ खाते हैं और धीरे-धीरे ख़ाली कर देते हैं। फिर वे नया दिमाग़ पकड़ते हैं, दीमक जैसे चिपकते हैं और उसको भी ख़ाली कर देते हैं। यह क्रिया आदमी को जानवर से भिन्न बनाती है। आप आदमी बनने की प्रक्रिया देखिए- बच्चा पैदा हुआ, उसका दिमाग़ माँ-बाप ने खाया, रिश्तेदारों को खिलाया, स्कूल मास्टरों ने दावतें उड़ाईं, खुड़चन बची, वह कॉलेज में साफ़ हो गई। दिमाग़ की हंडी एकदम क्लीन, बजा के देखी, बजी। तब विश्वविद्यालयों ने डिग्री दे दी, गुरुओं ने कहा वत्स, तुम पूर्ण आदमी हुए, अब दिमाग़ कबाड़ो और खाओ।

ऐसा ही एक पूर्ण आदमी था, दिमाग़जीवी, लोगों का दिमाग़ खाकर जीने वाला। अमेरिका में रहता था। एक दिन वह निठल्ला बगीचे में बैठा था कि उसकी दिमाग़ी हंडी पर सेब गिरा। उसकी हंडी ख़ाली थी, इसलिए टन्न बजी। वह चिंतन करने लगा, सेब नीचे क्यों आया, ऊपर क्यों नहीं गया? अमेरिकनों के हिसाब से हर चीज़ ऊपर जानी चाहिए। मुफ़्त का सेब था, इसलिए उसने तत्काल सेब खा लिया और बड़ा वैज्ञानिक बन गया। तबसे बड़े-बूढ़े नसीहत देते हैं कि महान बनने के लिए साग-रोटी के अलावा भी खाना ज़रूरी है। सेब महँगा है, दिमाग़ सस्ता है, महँगा छोड़ो, सस्ता खाओ, दिमाग़ खाओ।

आप जानते ही हैं, मूलतः दिमाग़ गोबरनुमा ‘सेमी लिक्विड’ होता है। न ठोस, न द्रव, अति स्वादिष्ट, रबड़ी जैसा, चाटो तो चटखारे लेते रहो। शुरू में दिमाग़ चाटना रासायनिक क्रिया होती है। कोई चाटक दिमाग़ चाटना शुरू करता है तो वह उसे ख़ाली कर के ही साँस लेता है। दिमाग़ी तरल पदार्थ के लुप्त हो जाने से दिमाग़ ख़ाली और बट्ठर हो जाता है। इसमें दिमाग़ का मूल स्वरूप ही बदल जाता है, रासायनिक क्रिया पूर्ण हो जाती है।

चाटक फिर भी आते रहते हैं पर अब भौतिक क्रिया ही हो सकती है। दिमाग़ ख़ाली है, वह न गर्म होता है न ठंडा, निर्विकार रहता है। जितना चाटना है चाटो, शौक से चाटो। अभी-अभी जो दिमाग़ बट्ठर बना था, वह प्रतिक्रियावादी बन जाता है। दूसरों का दिमाग़ कबाड़ता है और चाट-चाट कर उसे महान बना देता है। अब आप समझ जाएँगे कि भारत जगत गुरू क्यों है। यहाँ गुरू ही गुरू रहते हैं, पूरे सवा सौ करोड़ गुरू। और तो और वे प्रवासी गुरू बनकर दुनिया भर में फैल गए हैं। अपने ख़ानदानी कौशल से उन्होंने दिमाग़ चाटन को विश्व व्यापी व्यापार बना दिया है। अब उसे कहीं भी करो, कभी भी करो, बिना लायसेंस के। न टैक्स के लफड़े, न हिसाब की झंझट। ऐसा बेधड़क मुक्त व्यापार करना हमारी विशेषज्ञता है।

दि माग़ चाटन थोक एवं खेरची दोनों रूपों में लोकप्रिय है। कोई कुर्सीला नेता आए तो लोग भेड़ जैसे दौड़ते हैं, मैदाउपकृत न भीड़ मयी हो जाता है, ठसाठस। स्थानीय चाटक आते हैं और अकथित दो शब्दों (गधा है) में चाटक नेता का परिचय देते हैं। उस नेता को उपस्थित भीड़ का दिमाग़ चाटने को आमंत्रित करते हैं। भीड़ स्वीकृति में तालियाँ बजाती है,  मानो कह रही है, आ जाओ, हमें चाट कर उपकृत कर दो।

तोंद सम्भाले राजनेता मंच पर आते हैं, माइक बजा कर कहते हैं – ‘भाइयों और बहनों’! लोग आत्म समर्पित हो दिमाग़ चटवाने तैयार हो जाते हैं। उनका आग्रह होता है तो खड़े लोग बैठ जाते हैं, फिर बैठे-बैठे सो जाते हैं। इतना विशाल प्रजातंत्र इसलिए खर्राटे भरते हुए चल रहा है।

दस-बीस हज़ार लोगों की भाड़े की भीड़ में, दस-बीस दिमाग़ होते हैं, शेष सादी वर्दी में पुलिस विभाग होता है। श्रोता जानते हैं कि उनका दिमाग़ ठोस है, क्या बिगड़ता है। वे तो देश के लिए जान दे सकते हैं, दिमाग़ क्या चीज़ है। राजनेता रूपी थोक चाटक अनुभवी है, उसका उद्देश्य होता है पब्लिक का दिमाग़ और सरकार का ख़जाना चाटना। वह इस प्रत्याशा में चटखारे लेता है, ठिठोली करता है, पब्लिक तालियाँ ठोकती है, वोट देने की रस्म निभाती है और जनतंत्र को ज़िन्दा रखती है। अख़बार विज्ञापन के अनुपात में चाटक का फोटो और ख़बर छापते हुए लिखते हैं- चाटक ने जन समुदाय को बांधे रखा और चाटा, उनका संवाददाता इसका प्रत्यक्षदर्शी रहा।

पंडित जी परंपरागत चाटक हैं, वे चाटने की दक्षिणा लेते हैं। इस युग में चाटन भी प्रयोगवादी है, कुछ दशकों में समतावादी चाटन विधा बेहद पनपी है। समतावादी चाटन में सब क्रमशः चाटते है। तुम हमें चाटो, हम तुम्हें चाटें। बहसों, गोष्ठियों, संस्थाओं में यह चाटा-चाटी क्रमशः चलती रहती है।

आप भी कितने महान हैं। एक आदमी स्वेच्छा से आपका दिमाग़ चाटता है। आप मन में कुड़कते हैं, पर क्षमाभाव धारण किए चटवाते रहते हैं। चाटक अपना मुँह आपके मुँह के इतना समीप लाता है गोया आप कान से नहीं मुँह से सुनते हों। चाटक यह मानकर चिल्लाता है जैसे कि आप भी उतने ही बहरे हों। वह बोलता ही रहता है, जैसे कि आप गूंगे हों, वह चाटता रहता है जैसे कि आपके पास दिमाग़ हो।

रवीन्द्रनाथ की तरह मैं भी कहूँगा, ‘एकला चाटो रे’। अकेले चाटक हर कहीं मिल जाएँगे, बाग़ों में, बाज़ार में, टाकीज़ में, जेल में, प्लेन में, रेल में। एक ढूँढोगे तो हज़ार मिलेंगे। नसरगंडों की तरह मिलेंगे, और मिलेंगे तो चाटेंगे। चाटक होगा पहला कवि, इसलिए हर कवि मान्यता प्राप्त चाटक है। कवि रोब से चाटता है, सरकार मानपत्र देती है, कहती है प्रशंसा योग्य चाटा, एकेडमिक चाटा। लोग जानते हैं, कवि चाटेंगे फिर भी उसे बुलाएँगे, छेड़ेंगे आ कवि, मुझे चाट, शास्त्र संगत चाट। कवि की सुप्त प्रतिभा जागेगी, और वह जागेगा तो चाटेगा।

चाटन महान कला है, चाटन अद्भुत विज्ञान है, चाटक बेचारा बोलकर कितना चाटता। अब कोई गाकर चाटता है, लिखकर चाटता है, वाट्सऐप पर चाटता है, फेसबुक पर चाटता है। पाठकों क्षमा, आपका दिमाग़ मैंने भी चाटा, था तो चाटा, नहीं था तो भी चाटा पर जी भरकर चाटा।

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Author’s Book:

धर्मपाल महेंद्र जैन
टोरंटो (कनाडा) जन्म : 1952, रानापुर, जिला – झाबुआ, म. प्र. शिक्षा : भौतिकी; हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर प्रकाशन : छः सौ से अधिक कविताएँ व हास्य-व्यंग्य प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, आकाशवाणी से प्रसारित। 'कुछ सम कुछ विषम', और ‘इस समय तक’ कविता संकलन व 'इमोजी की मौज में', "दिमाग़ वालो सावधान" और “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” व्यंग्य संकलन प्रकाशित। संपादन : स्वदेश दैनिक (इन्दौर) में 1972 में संपादन मंडल में, 1976-1979 में शाश्वत धर्म मासिक में प्रबंध संपादक। संप्रति : सेवानिवृत्त, स्वतंत्र लेखन। दीपट्रांस में कार्यपालक। पूर्व में बैंक ऑफ इंडिया, न्यू यॉर्क में सहायक उपाध्यक्ष एवं उनकी कईं भारतीय शाखाओं में प्रबंधक। स्वयंसेवा : जैना, जैन सोसायटी ऑफ टोरंटो व कैनेडा की मिनिस्ट्री ऑफ करेक्शंस के तहत आय एफ सी में पूर्व निदेशक। न्यू यॉर्क में सेवाकाल के दौरान भारतीय कौंसलावास की राजभाषा समिति और परमानेंट मिशन ऑफ इंडिया की सांस्कृतिक समिति में सदस्य। तत्कालीन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बैंकर्स में परीक्षक।