दिन गुज़रता नहीं आता, रात
काटे से भी नहीं कटती
रात और दिन के इस तसलसुल में
उम्र बाँटे से भी नही बँटती
अकेलेपन के अन्धेरें में दूर-दूर तलक
यह एक ख़ौफ़ जी पे धुँआ बनके छाया है
फिसल के आँख से यह छन पिघल न जाए कहीं
पलक-पलक ने जिसे राह से उठाया है
शाम का उदास सन्नाटा
धुँधलका, देख, बढ़ जाता है
नहीं मालूम यह धुआँ क्यों है
दिल तो ख़ुश है कि जलता जाता है
तेरी आवाज़ में तारे से क्यों चमकने लगे
किसकी आँखों की तरन्नुम को चुरा लाई है
किसकी आग़ोश की ठण्डक पे है डाका डाला
किसकी बाँहों से तू शबनम को उठा लाई है!