‘Do Kamre’, a poem by Nalini Ujjain
मेरा घर दो कमरों में बँटा हुआ है
और वो दो कमरे दो-दो के गुटों में।
बड़े कमरे में दो बड़े लोग
और छोटे कमरे में दो छोटे लोग।
हर कमरे में दो-दो ओहदे हैं
एक बड़ा, एक छोटा,
दोनों कमरे एक-दूसरे से
बहुत अलग हैं।
दोनों कमरों के बड़े-बड़े दिग्गजों ने
सीमाएँ कुछ यूँ बाँटी हैं
कि हर चीज़ का समय तय है।
बड़े कमरे का बड़ा दिग्गज
हर सुबह दबे पाँव छोटे कमरे
में दाख़िल होता है,
उन बड़े इश्वरों के आगे हाथ जोड़ने जो
उसने छोटे कमरे में टाँग रखे हैं।
फिर छोटे कमरे का छोटा दिग्गज
बड़े कमरे में दाख़िल होता है
ताकि अपना छोटा पर भारी बस्ता
उठाकर स्कूल जा सके।
दोनों कमरों के दिग्गजों ने
अपने-अपने स्वार्थ और निजी
ज़रूरत की चीज़ों को एक-दूसरे के कमरों
में टाँग रखा है,
जिन्हें पूरा करने के लिए वो
एक निश्चित समय के लिए ही सही,
पर सीमा पार करते हैं।
बड़े कमरे का बड़ा दिग्गज और
छोटे कमरे का छोटा दिग्गज तो रोज़
आसानी से सीमा पार कर जाते हैं,
सीमा आसानी से पार
गर कोई नहीं कर पाता तो
वो बड़े कमरे का छोटा दिग्गज
और छोटे कमरे का बड़ा दिग्गज हैं।
ये दोनों सीमा तब तक पार नहीं करते
जब तक अपने-अपने मोह का गला घोंटकर
उसे अपने कमरों में दफ़ना न दें।
सीमा पार करके दोनों एक दूसरे को
जी भर के कोसते हैं,
और ख़ुद को शायद उससे भी ज़्यादा,
फिर अपने-अपने कमरों में वापस
लौट आते हैं।
दोनों एक-दूसरे से बेहद प्यार करते हैं
पर मोह उनके कमरों से बाहर आने तक
अक्सर ख़ुदकुशी कर लेता है।
ख़ैर
दोनों कमरों के बड़े
दिग्गजों ने कमरे के बँटवारे के
दो अदृश्य काग़ज़
अपने-अपने अहम के कमरों
की दो अलमारियों
में रख रखें हैं,
वो दो अलमारियाँ जो शायद
अब कभी नहीं खुलेंगी
ये दो कमरे इतने सालों
से बँट जो गए हैं,
और उनके साथ मेरा घर भी।