‘Dohan’, a poem by Rupam Mishra

काफ़ी देर से वो मेरे आँगन की देहरी पर
चुपचाप बैठी थी
जन्म की शज़री आँखें अब एकदम सूनी हैं

मैंने पूछा तू भाग क्यों जाती है बार-बार?

साँवला-सा माथा थोड़ा-सा सिकुड़ गया
चुप रही वो!

बहुत डाँटने पर आख़िर में बोली-
भट्टे के ठेकेदार ने कहा बच्चे को मैं पालूँगा

मैंने ग़ुस्से से कहा, वो छोड़ गया तो
रिक्शेवाले से साथ क्यों भागी?

उसने कहा था बच्चे का नाम स्कूल में लिखाऊँगा!

अब शराबी बाप कहता है कि
अपने जीते जी तुझे यहाँ न रहने दूँगा

मैंने कहा, वो कब से ज़िंदा हो गया?

मुझे याद आयी खूँटे से बँधी गाय जिसके बच्चे को जितनी बार उसके थन तक ले जाया गया
हर बार दूध उतर आता थन में
और दुहने वाले बछड़े को हटाकर दूध निकाल लेते

मैं उसे धर्म नैतिकता और संस्कार जैसे उजले शब्दों पर
लम्बा उपदेश देना चाहती थी

वो पहले भूखे बच्चे को चुप कराते हुए
दूसरे को आँचल में ढाँककर दूध पिला रही थी
और याचना भरी आँखों से मेरी ओर देख रही थी
जैसे कह रही हो कि भूख से बड़ा कोई धर्म नहीं होता

अलग-अलग लोगों की अलग-अलग भूख होती है
सब उसी अपनी भूख के लिए भाग रहे हैं

मैंने थोड़ा-सा चावल और दाल देते हुए कहा,
तू अभी जा! बाद में फिर कभी आना!

एक अदृश्य भय जैसे उसके आसपास
भूख की गहरी छाया मण्डरा रही थी!

भूख के कई हाथ उसकी तरफ़ बढ़े आ रहे थे
मैंने मन में कहा, तू जा! चली जा!
भूख का क्या ईमान, वो यहाँ भी आ सकती है!

फिर से कोई बछड़े को आगे करके
गाय का दोहन करेगा

तू क्या समझती है हमजात
भूख यहाँ नहीं रहती

और हम स्त्रियों का क्या
एकान्त में रोते हुए पैर पकड़कर माफ़ी माँग लो
स्त्री सात ख़ून माफ़ कर देगी।

यह भी पढ़ें: रूपम मिश्रा की कविता ‘तुम इतने ख़ूबसूरत हो’

Recommended Book: