‘Dor Aur Patang’, a poem by Mamta Pandit

अस्तित्वहीन-सी डोर
साथ पतंग के महत्त्वपूर्ण हो जाती है,
बेमानी सी पतंग
साथ डोर के नयी ऊँचाइयाँ छू जाती है

उड़ान पतंग की महत्त्वाकाँक्षा है
तो फिर डोर क्या है
सीढ़ी, साधन या सहारा
जो भी है
बिन इसके मुश्किल है
पतंग का गुज़ारा

और अकेली डोर की भी
तो कोई कहानी नहीं
इनके अद्भुत बंधन का
कोई सानी ही नहीं…

कुछ पल के साथ की अद्वितीय उड़ान…
कटते ही डोर के, ख़त्म होती पहचान

पतंग फिर कोई नयी डोर ढूँढेगी
और डोर कोई नया ठौर ढूँढेगी

फिर जुदा हो दोनों,
नापेंगे नया आकाश…
क्या मिलेंगे फिर कहीं
लिए अधूरी आस..
उड़ते-उड़ते ,कटते-लूटते
अब हो गई हताश….
न जाने किस डोर को,
पतंग रही तलाश।