राहुल द्रविड़। एक ऐसा खिलाड़ी जिसने खेल को एक जंग समझा और फिर भी जंग में सब जायज़ होने को नकार दिया। एक ऐसा साथी जिसने अपने साथियों को खुद से हमेशा आगे रखा। एक ऐसा प्रतिपक्षी जिसके आगे दुश्मनों के सिर भी झुके नज़र आए। एक ऐसा इंसान जिसे शब्दों की ज़रूरत कम ही पड़ी, उसके लिए.. कुछ शब्द.. एक कविता। – पुनीत कुसुम
कहते हैं
कोई नहीं
क़ैद कर सकता हवा को
न ही तुमने किया
लेकिन छीन ली उससे
तुमने गति
और मारा फिर पटक कर
कच्ची मिट्टी के पिंडों की तरह
शोर था जब चारों तरफ
तुमने माना संतुलन को
सर्वोपरि
और चुप रहे
जड़ बने
और धड़ सी तुम ‘दीवार’ एक
सेंध जिसमें
बस की नहीं
उनके भी
जीते हैं असंख्य जग जिन्होंने
और जग को
तुमने बताया
सफल होने से पहले
असफल होना भी इक
उम्मीद है
पद-चाप है
एक सीख है
तुमने ही जताया
काँधे पर है आज के ही
बोझ सारा भविष्य का
तुमने ही दिखाया
इतिहास भी होते हैं
बिना गलतियों के
इक बात और
बस तुम बताओ
कि इस खेल में
है जो भव्य और वैभव के पुतलों से भरा
इस आक्रामक खेल में
भीड़ में कैसे रहे
पीछे सबसे और सभ्य
तुम इतने दिनों..