सपनों के डर से
मैंने कई रातें दिन की तरह बितायीं
और दिन में बेहोश होकर सोया
बहुत बाद में
मुझे मालूम हुआ
नींद और बेहोशी में फ़र्क़ होता है
आज भी
कभी-कभी
मैं उस रात के बारे में सोचता हूँ
जिस रात
अपने स्वप्न में भी
मैंने तुम्हें खो दिया
तुम्हें खोने का डर
जो तुम्हें खोने के बाद भी बना रहा
उसे मैंने एक आस्तिक की तरह स्वीकार लिया
लेकिन
मुझे दुःख है कि
तुम्हारी पीठ पर जमी बर्फ़ को मैं पिघला न सका
मुझे बहुत दुःख है कि
तुम्हारी भाषा में
इंक़लाब की जगह
मैंने समाज-जनित अनिबद्ध प्रलाप को महसूस किया
मुझे दुःख है कि
मेरी आस्था जाती रही
मुझे दुःख है कि
मैंने तुम्हें खो दिया।
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