दुख कहाँ से आ रहे बतलाइए
और कब तक जा रहे बतलाइए
भूख कब से द्वार पर बैठी हुई
आप कब से खा रहे बतलाइए
काम से जो लोग वापस आ रहे
रो रहे या गा रहे बतलाइए
काम कीजे, चाह फल की छोड़िए
आप क्यूँ समझा रहे बतलाइए
आम बौरंगे तो महकेंगे ज़रूर
आप क्यूँ बौरा रहे बतलाइए
मानते हैं आप हैं जागे हुए
पूछते हम क्या रहे बतलाइए!
रामकुमार कृषक की कविता 'हम नहीं खाते, हमें बाज़ार खाता है'