मैंने तो चाहा बहुत कि अपने घर में रहूँ अकेला, पर—
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुःख ने दरवाज़ा खोल दिया।
मन पर तन की साँकल देकर, सोता था प्राणों का पाहुन
पैताने पाँव दबाते थे, बैठे चिर जागृत जन्म-मरण
सिरहाने साँसों का पंखा झलती थी खड़ी आयु चंचल
द्वारे पर पहरेदार बने थे घूम रहे रवि, शशि, उडुगन
फिर भी चितवन का एक चोर फेंक ही गया ऐसा जादू
अधरों ने मना किया लेकिन आँखों ने मोती रोल दिया।
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुःख ने दरवाज़ा खोल दिया।
जीवन पाने को शलभों ने जा रोज़ मरण से किया प्यार
चन्दा के होंठ चूमने को दिन ने चूमे दिन-भर अंगार
निज देह गलाकर जब बादल हो गया स्वयं अस्तित्वहीन
आ सकी तभी धरती के घर सावन-भादों वाली फुहार
दुनिया दुकान वह जहाँ खड़े होने पर भी है दाम लगा
हर एक विरह ने रो-रोकर, हर एक मिलन का मोल दिया।
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुःख ने दरवाज़ा खोल दिया।
जब ख़ाली थे यह हाथ, हाथ था इनमें हर कठिनाई का
जब सादा था यह वस्त्र, ज्ञान था मुझे न छूत-छुआई का
लेकिन जब से यह पीताम्बर मैंने ओढ़ा रेशम वाला
डर लगता है मुझको अँचल छूने में धूप-जुन्हाई का
बस वस्त्र बदलते ही मैंने यह कैसा परिवर्तन देखा
जिस रस को दुःख ने अमृत किया, उसमें सुख ने विष घोल दिया।
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुःख ने दरवाज़ा खोल दिया।
चाँदनी टूट जब बनी ओस, ले गई उसे चुन धूप कहीं
संध्या ने दिये जलाए तो तम भी रह सका कुरूप नहीं
फूलों की धूल मले शरीर जब पतझर बगिया से निकला
तब मिला द्वार पर खड़ा हुआ उसको रितुराज-अनूप वहीं
हर एक नाश के मरघट में निर्माण जलाए है दीपक
जब-जब आँगन ख़ामोश हुआ, तब-तब उठ बचपन बोल दिया।
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुःख ने दरवाज़ा खोल दिया।
गोपालदास नीरज की कविता 'जितना कम सामान रहेगा'