आज की पीढ़ी महरूम है उस दुलार से
जो हमें मिल जाता था बरबस दादी के प्यार से,
गर दूर भी रहें तो भी दिल में चेहरा सा बसा रहता था
हमें हर घड़ी बस इतवार का इंतज़ार रहता था
क्या पहना है? शक्ल का मुआयना भी किया है या नहीं
परवाह इसकी तनिक हमें होती नहीं थी,
दादी के मुररब्बे, गुड़ और अचार की तलब रहती थी।
उनके गले में लटकती वो आलमारी की चाभी
थी हम बच्चों को उनके साम्राज्य की याद दिलाती,
कम्प्यूटर, लैपटॉप, टेक्नोलॉजी से ज़रा दूर सी थीं
बासी खाने में भी मगर अमृत सा भर देती थीं
ज़बान उनकी थी गुड़ की डली
सोहर, गीत, कविताएं उनकी गोद में पलीं
कहानियों का तो अम्बार सा लग जाता था
रातों में जब हम छत पर सोने जाते थे,
बच्चों की जगह सुनिश्चित थी
ममता भरी उनकी बाहों की महक ही बिस्तर की नरमी थी
अब वो ज़माना खो गया हैं कहीं दूर छूट सा गया है
लैपटॉप, टेबलेट में जूटे हैं बच्चे,
दादी किटी पार्टीज़ करती हैं
बेशक हैं महरूम वो उस दुलार से
जो हमें बरबस मिल जाता था दादी के प्यार से।

अनुपमा मिश्रा
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