‘Duniya Naamak Ek Bewa Ka Shok Geet’, a poem by Shrikant Verma

लगभग सड़कों ही सड़कों भागता हुआ बियाबान
उल्लुओं का दिवास्वप्न
चुकते कलाकारों के शहरों और टोलों पर
औरतें
सोफ़ों पर, नहीं तो
किचन में,
कवि खटोलों पर।

उल्लुओं की चुंधी हुई
नज़रों के लिए
प्रिय दृश्य जुटाने का कार्यक्रम।

शहरों के चिह्न
शहरों के चिह्न
और
प्रेम के मलबे पर
बैठी हुई
कवियों की मूर्ख प्रियतमाएँ
माँग रही हैं
स्नान में गुनगुनाने के लिए
एक पंक्ति
और जुड़े में खोंसने के लिए
एक साफ़
झूठ।

लगभग सड़कों ही सड़कों भागता हुआ उल्लुओं का दिवास्वप्न और कुछ उन्हीं सड़कों पर दुनिया नामक एक बेवा का शव अपने कन्धों पर उठाये हुए भाड़े के लोग तथा काले कपड़े पहने गायक और कवि आपस में एक दूसरे के शोक-गीत की दाद देते हुए व शव-यात्रा कभी भी समाप्त न होने की प्रार्थना करते हुए चले जा रहे हैं पता नहीं किधर.. दुनिया जिधर कभी नहीं गयी थी..

(उल्लुओं का कोरस ॐ शान्ति)

अस्तु-
लोगों के चिह्न
तथा अबके अकारण
अवतार
ढूँढ रहे हैं
पृथ्वी से ऊबकर आकाश
आकाश से ऊबकर
पाताल
(बीवी से ऊबकर
साहित्य
बच्चा से ऊबकर
भविष्य)

तथास्तु-
प्रभु के चरण-चिह्नों पर
चली जा रही हैं
दो बूढ़ी औरतें
रसातल की ओर। सभ्यता और संस्कृति।

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Book by Shrikant Verma:

श्रीकान्त वर्मा
श्रीकांत वर्मा (18 सितम्बर 1931- 25 मई 1986) का जन्म बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ। वे गीतकार, कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। ये राजनीति से भी जुड़े थे तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। 1957 में प्रकाशित 'भटका मेघ', 1967 में प्रकाशित 'मायादर्पण' और 'दिनारम्भ', 1973 में प्रकाशित 'जलसाघर' और 1984 में प्रकाशित 'मगध' इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। 'मगध' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित हुये।