‘Ek Baar Hua’, a poem by Nirmal Gupt
एक बार बस एक ही बार
किसी दिन किसी लम्हे मुझे लगा
कि शायद यह प्यार है
कान के नज़दीक की शिरायें
हौले से कम्पित हुईं
कनपटी पर ताप बढ़ा कि
भभक उठा पूरा वजूद
यह आवेग जैसा कुछ था बेशक
मुझे यक़ीन नहीं होता यक़ीनन
आदिम प्यार के किस्से लोक में प्रचलित हैं
उनसे इतर मेरे पास दुनियावी पैमाने से मापने के
इनेगिने क़दीमी उपकरण हैं
जाड़ों में धूप की लकीर जब
जर्जर हुए भुतही इमारत के कंगूरे पर जा टिके
तो मानना पड़ता है कि
अब परछाइयाँ नापने वाली है समूचा दिन
प्यार सिर्फ़ इतना ही है बस इत्ता-सा
लगे कि मन के भीतर कुछ प्रत्याशित घटा
कोई तेज़ रफ़्तार रेलगाड़ी गुज़रे और
पटरियों के नज़दीक के खेतों में उगी
गेहूँ की ताज़ातरीन बालियों में हरकत हो
हवा में घुल जाए गेहुँआ दूध की अनचीन्ही गमक
मैंने बार-बार ख़ुद से पूछा
क्या यही है प्यार की गीली ज़मीन से होकर गुज़र जाना
जिस पर ठहरे उदास पदचिन्हों को
प्रेम कथाओं के पन्नों में संरक्षित कर
हम सदियों से बेवजह मुग्ध हुए जाते हैं
सदियाँ बीती मैं देह की दहलीज़ के मुहाने खड़ा
न जाने कब से अनागत जवाब की बाट जोहता हूँ…
यह भी पढ़ें: भारत भूषण अग्रवाल की कविता ‘योजना का प्यार’