कुछ भी छोड़कर मत जाओ इस संसार में
अपना नाम तक भी
वे अपने शोधार्थियों के साथ
कुछ ऐसा अनुचित करेंगे कि तुम्हारे नाम की संलिप्तता
उनमें नज़र आएगी
कुछ भी छोड़ना होता है जब परछाई को
या आत्मा जैसी हवा को तो वह एक सूखे पत्ते को
इस तरह उलट-पुलट कर देती है
जैसे वह ख़ुद यों ही हो गया हो
ऐसी जगह लौटने का तो सवाल ही नहीं है
क्योंकि तुम्हारे बाद तुम्हारी तस्वीर के फ़्रेम में
किसी कुत्ते की फ़ोटो लगी होगी
माना कि तुमने एक कुत्ता-ज़िन्दगी जी है
लेकिन कुछ कुत्तों ने तुमसे लाख दर्जे अच्छे दिन देखें हैं
ऐसी जगह न तो छोड़ना ही है कुछ और न लौटना ही है कभी
पुनर्प्राप्ति की आशा में
ज़िन्दगी की ऊबड़-खाबड़ स्लेट पर लिखीं सभी महत्वाकांक्षाएँ
मिट जाएँगी, पानी फिर जाएगा दुनियादारी से अर्जित किए
विश्वासों पर और पानी नहीं तो धूल ही ढक लेगी उन्हें
क्योंकि तुम्हारे साथ और तुमसे पीछे चलने वाले
बहुत दूर निकल चुके हैं
अब तो फूलमालाएँ उनके पीछे-पीछे आती हैं
और वे अस्वीकार करने के स्वाभिमान और दर्प का
प्रदर्शन करने में लगे हैं।
तुम्हारे पास त्यागने के लिए कुछ भी नहीं हैं
सिवाय इस शरीर के
उन्हें शायद पता है कि यह वैज्ञानिक परीक्षण के लिए
सर्वथा अनुपयुक्त है क्योंकि इसके कई अंग
ग़ायब हो चुके हैं।
मेरे हिस्से की शांति—
जब कभी भी फेंक दिया जाता हूँ
पृथ्वी से बाहर—
वह और भी सुंदर लगती है
जब जड़विहीन किसी पेड़ की तरह लटकता हूँ
वर्तमान और भविष्य के बीच
तो चाहता हूँ उसकी मिट्टी से अटूट जुड़ना
हवा पानी के लिए छटपटाता हूँ इस तरह
कि जैसे कभी मिलन रात्रि में टीसता रहा हूँ
मुझे बाहर मत फेंको
मुझे समेटने दो अपनी किताबें, अपने बिखरे शब्द
एकमात्र मेरा जन्मना अधिकार है जो
मुझे उस शांति और निश्चिंतता में साँस लेने दो
मेरे होने से कोई ख़तरा नहीं है
बल्कि सुरक्षा है नष्ट होने से बचे सौंदर्य
और सरल चित्त मनुष्यता की
न जाने किससे कह रहा हूँ कि छल मत करो
जबकि नए-नए शक्ति केंद्रों की अमूर्त स्वार्थपरताएँ
पृथ्वी को हड़प करने में लगी हैं।
ऋतुराज की कविता 'कभी इतनी धनवान मत बनना'