किताब: ‘एक बटा दो’
लेखिका: सुजाता
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन

समीक्षा/टिप्पणी: महेश कुमार

स्त्री निर्मिति की विभिन्न चरणों की पड़ताल करके उससे बाहर निकलने का स्त्रीवादी विश्लेषण है ‘एक बटा दो’

‘एक बटा दो’ सुजाता जी का पहला उपन्यास है। यह राजकमल प्रकाशन से 2019 में प्रकाशित हुआ था।

‘कुन’ अर्थात् ‘हो जा’ होना भी क्या है तो पेंडुलम। उपन्यास इस पेंडुलम से शुरू होता है। ‘पुनर्जीवन’ मतलब शांति, स्थिरता की चाह, एक ऐसी दुनिया की इच्छा पर ख़त्म होता है जहाँ एक स्त्री का जीवन उसका हो। जहाँ उसे अपने लिए जीने, सोचने, पसंद का काम करने का भरपूर अवसर हो। उपन्यास दो स्त्रियों (मीना और निवेदिता) की कथा कहता है। दोनों कथाएँ समानांतर चलती हुई लगती हैं, मानो दोनों के जीवन के बीच कोई आपसी जुड़ाव न हो (असंगतता)। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि पाठक उपन्यास में नायक-नायिका या पूर्व निर्धारित कथानक को खोजने की कोशिश करता है। यह उपन्यास इस तरह के कथानक रूढ़ि से इतर नया प्रयोग है। यहाँ पूरी ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था’ ही उपन्यास के केंद्र में है और उसके विश्लेषण के लिए लेखिका ने स्त्रीवादी तरीक़ा अपनाया है। इसलिए मीना सोचती है कि ‘पूरे सिस्टम का बदला मैं एक व्यक्ति से तो नहीं ले सकती न!’ ज़ाहिर है इस उपन्यास की दोनों स्त्री पात्र व्यक्ति (पुरूष) से नहीं लड़ रहीं, वे पुरुषवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रही हैं।

आलोचक चाहें तो कह सकते हैं कि इस उपन्यास में कोई तय कथानक है ही नहीं। हो भी कैसे, यह व्यवस्था स्त्रियों को अपनी कथा कहने कहाँ देती है? सो लेखिका ने व्यवस्था को ही केंद्र में रखकर एक वैचारिक संघर्ष-कथा का निर्माण करना चुना।

उपन्यास स्त्री निर्मिति के विभिन्न चरणों का क्रमबद्ध विश्लेषण करता है। परिवार और स्कूल दो ऐसी जगह हैं जहाँ बच्चों का प्राथमिक रूप से ‘व्यक्तित्व निर्माण’ किया जाता है। स्कूल में निवेदिता देख रही है कि मध्यवर्गीय और ग़रीब घरों की लड़कियों के पास सीमित अवसर हैं पढ़ने के। शिक्षा शास्त्र के प्रशिक्षण, पाठ योजना सब हाथ खड़े कर देते हैं व्यावहारिक चुनौतियों के आगे। यह भारतीय शिक्षण व्यवस्था और उसके नीति निर्माताओं की भयंकर असफलता है कि उसकी लड़कियों की चुनौतियों की मनोवैज्ञानिक समझ बेहद सीमित है। इसके पीछे का कारण वही पुरुषवादी दृष्टिकोण है। लड़कियों के बढ़ते ड्रापआउट दर के पीछे सफ़ाई, सुरक्षा, भोजन, ग़रीबी, पीरियड्स की बड़ी भूमिका है। सरकारी विद्यालयों में इसको लेकर कोई संतोषजनक व्यवस्था नहीं दिखायी देती। केवल सहानुभूति काफ़ी नहीं है, तदनुभूति की ज़रूरत है।

पाँचवी कक्षा में आते-आते रोटी, चाय, घर-गृहस्थी के काम आ जाएँ तो वाह-वाह से घर का हर कोना आनंदित होता रहता है। वहीं कोई लड़का प्रेमपत्र लिखकर दे दे, छेड़खानी कर दे तो दोष लड़की का, पहरा उसपर और बाक़ी सबको मौक़ा मिल जाता है उलाहना देने और मानसिक प्रताड़ना का। ‘माहवारी’ आख़िर ग्लानि का कारण क्यों है? इसके पीछे पुरुषवादी धार्मिक सत्ता ही है न जो उसे अशुद्ध घोषित करके, तरह-तरह के अंधविश्वास और मिथक रचकर इस पर बात करने को निषिद्ध करती है। फलस्वरूप जब पहली बार कोई लड़की इस पीड़ा से गुज़रती है तो इस पर बात करने के बजाय उसे चुप रहने को कहा जाता है जो हीनभाव को बढ़ाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है। इसी तरह ‘मातृत्व’ की आड़ में जो मोबिलिटी और देह पर नियंत्रण की कोशिश होती है, लेखिका मातृत्व के इस पुरुषवादी षड्यंत्र और अतिरिक्त महिमामंडन को बड़ी सहजता से प्रतिकार करते हुए कहती हैं— ‘बच्चा सबसे मनमौजी शोषक होता है।’ यह वाक्य न जाने कितनी ही स्त्रियों को नागवार गुज़रे! ठीक उसी तरह जैसे भ्रूण को ट्यूमर कहने से होता है। जबकि यह एक जीववैज्ञानिक तथ्य है। यह अनुभव तभी दर्ज होगा जब बड़ी मात्रा में स्त्रियाँ बिना डर के सहज होकर लिखेंगी।

वर्तमान समय में ज़ोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है कि स्त्रियों को बाहर निकलने का मौक़ा मिल रहा है। ख़ूब आज़ादी है। अगर ऐसा है तो पढ़ी-लिखी लड़कियों के माँ-बाप अभी भी क्यों दहेज में मोटी रक़म देने के लिए विवश हैं? अब तो दहेज भी देना है और लड़की को पढ़ाना भी है। इसके बाद ‘नौकरी करने देने’ के पीछे का भयावह सच यह है कि पति और ससुराल वालों को आर्थिक सहायता मिल जाती है। जगजीत हो या सिद्धांत, वे अपनी प्रगतिशीलता के कारण अपनी पत्नियों को नौकरी करने दे रहे हैं ऐसा बिल्कुल नहीं है। वे तो अपनी पत्नियों को सिखा रहे हैं कि अपमान क्या होता है, बहादुर बनो नहीं तो क्या मैं ख़र्चे के लिए अपने पेरेंट्स से पैसे लूँगा? यह हमारे आसपास रोज़ घटने वाली घटनाएँ हैं। घर में रहने वाली औरतों का प्रशिक्षण इस तरह है कि वो कामकाजी औरतों को अपना दुश्मन मानती हैं। वे मध्यवर्गीय जीवन जीते हुए सबको ख़ुश रखते हुए दिखावटी जीवन जिये जाती हैं। घरेलू औरतें पुरुषवादी व्यवस्था के आर्थिक तंत्र के लिए बड़े काम की हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ब्यूटी पार्लर कॉस्मेटिक्स का बाज़ार।बड़ी सफ़ाई से लेखिका ने इस पहलू को रखा है।

औरतों की आज़ादी को लेकर तमाम दावों की सच्चाई यह है कि घर में माँ-बाप, भाई, रिश्तेदार अपनी बेटियों, बहनों को हमेशा यह जताते हैं कि देखो तुमको पढ़ने दे रहे हैं, पति यह जताता है कि नौकरी करने दे रहे हैं। यह भाव किस दृष्टिकोण से आज़ादी का सूचक है?

यह सीधा एहसान जताने का मामला है जो हर मध्यवर्गीय परिवार की लड़कियों की कहानी है। भारत के छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों की हक़ीक़त तो यही है कि वे दसवीं बोर्ड के बाद हमेशा डर के साए में रहती हैं कि कब उनकी पढ़ाई रुकवाकर शादी करवा दी जाएगी। डर से लड़कियाँ विरोध नहीं करती तो घर-परिवार समझता है कोई समस्या नहीं है। लेखिका अमेरिकी कवयित्री को उद्धृत करती हैं जिसका आशय है कि पुरुषवादी सत्ता के ख़िलाफ़ मौन रहोगे तो तुम्हें मार दिया जाएगा और कहा जाएगा तुम्हें आनंद आया। इसलिए ज़रूरी होता है कि हर नयी पीढ़ी लगातार अपनी पुरानी पीढ़ी से पूछती रहे कि ‘हम अपनी आज़ादी दूसरों से क्यों माँगते फिरें?’ यही वो सवाल है जो नयी पीढ़ी को संघर्ष का रास्ता तय करने में सहायता करेगा। तब उसे ‘ख़ैरात’ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। तब उसकी सफलता को ‘होना-सोना, किसलिए, इसलिए’ के दायरे में देखने वालों को ताबड़तोड़ जवाब दिया जा सकेगा।

ताबड़तोड़ जवाब देने के लिए और पितृसत्ता के विश्लेषण के लिए स्त्रीवाद ने स्त्री भाषा का रचनात्मक प्रयोग किया है। इस उपन्यास में इस भाषा की भरपूर उपस्थिति है।उपन्यास के वर्णन शैली में स्मृतियों का, स्वप्निल दृश्यों का ख़ूब प्रयोग है जिससे लगता है कि घटनाओं का क्रम नहीं जुड़ रहा है, असंगतता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि स्त्रियों के वास्तविक जीवन में सार्वजनिक स्पेस को इतना सीमित किया गया है कि वे सपनों में बार-बार लौटकर जाती हैं और अपने लिए कुछ उम्मीदें खोज लाती हैं। यह भी स्त्री भाषा का एक रूप है। ‘नींद में एक नदी बहती है जिसमें कभी पत्थर, कभी पत्ते, कभी पेड़ बह जाते हैं।’ दरअसल ये पत्ते, पत्थर, पेड़ स्त्रियों के दुख, ख़ुशी, सपने, इच्छाएँ हैं जो समाज रूपी नदी अपने साथ बहा ले जाती है। यह स्त्री भाषा की पीड़ा और व्यंग्य दोनों है जो कहती है कि ‘सिर्फ़ सेक्स के लिए नहीं, कभी अपने आराम के लिए भी पैर फैला सकती हूँ कि नहीं?’ यह वाक्य ‘पैर फैलाना’ का मुहावरा ही बदल देने की क्षमता रखता है और इसके बहाने पुरुषों की यौनिक कुण्ठा को नग्न कर देता है। स्त्री भाषा पितृसत्ता का जब विश्लेषण करती है तो वह चित्रात्मकता का भरपूर प्रयोग करती है जो प्रायः उसने घरेलू जीवन से लिया होता है। यह स्त्री भाषा की विशेषता ही है कि घण्टी के स्विच के बहाने वह ‘निशान’ का विश्लेषण करती हुई यह बता देती है कि निशान की भाषा का अनुवाद होता तो शायद हम सृष्टि के सबसे क्रूरतम प्राणी ठहराए जाते। लड़कियों के जीवन में मेकअप एक स्थायी और अनिवार्य चीज़ के रूप में शामिल कर दी गयी है। स्त्री भाषा इसे इस रूप में देखती है ‘बुरा है किसी सिद्धांत को शादी के मेकअप की तरह पहनना।’ यह स्त्रियों की मन और देह दोनों की भाषा है जिसका प्रयोग वो स्त्रीवादी सिद्धांत गढ़ने में करती हैं। स्त्री भाषा स्नायविक दबाव भी बनाती है। इसी दबाव के कारण कभी किसी देश में वर्जिनिया वुल्फ़ को जीवन का अंत करना पड़ता है तो कभी किसी अन्य देश में निवेदिता को। परन्तु वे आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित कर जाती हैं यह कहने के लिए कि “मैम! मेरी आज़ादी मुझे दूसरों से क्यों माँगनी पड़े? वह तो मेरी है न!”

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महेश कुमार
दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया ईमेल: manishpratima2599@gmail. com