ज़िन्दगी के जितने दरवाज़े हैं, मुझ पे बंद हैं
देखना— हद्द-ए-नज़र से आगे बढ़कर देखना भी जुर्म है
सोचना— अपने अक़ीदों और यक़ीनों से निकलकर सोचना भी जुर्म है
आसमाँ-दर-आसमाँ असरार की परतें हटाकर झाँकना भी जुर्म है
क्यूँ भी कहना जुर्म है, कैसे भी कहना जुर्म है
साँस लेने की तो आज़ादी मयस्सर है मगर
ज़िंदा रहने के लिए इंसान को कुछ और भी दरकार है
और इस ‘कुछ और भी’ का तज़्किरा भी जुर्म है
ऐ ख़ुदावंदान-ए-ऐवान-ए-अक़ाएद
ऐ हुनर-मन्दान-ए-आईन-ओ-सियासत
ज़िन्दगी के नाम पर बस इक इनायत चाहिए
मुझको इन सारे जराएम की इजाज़त चाहिए!