पुस्तक: ‘एक देश बारह दुनिया : हाशिए पर छूटे भारत की तस्वीर’
लेखक: शिरीष खरे
प्रकाशक: राजपाल एण्ड संस
समीक्षा/टिप्पणी: आलोक कुमार मिश्रा
संविधान में लिखा है— ‘इंडिया दैट इज़ भारत’, यह नहीं लिखा है कि ‘भारत दैट इज़ इंडिया’। न जाने क्यों मुझे लिखी गई इस पंक्ति में हमेशा इंडिया के मुक़ाबले भारत का ज़िक्र सेकेंडरी ही लगता रहा है। हालाँकि संविधान की ऐसी कोई मंशा तो नहीं ही है। सम्भवतः इसका कारण ख़ुद में मग्न, चमचमाते, तरक़्क़ी और ख़ुशहाली की परिभाषा गढ़ते चंद लोगों वाली इंडिया की तस्वीर से बहुत अलग दिखने वाली आम लोगों के आम भारत की तस्वीर ही है, जिसमें समायी हुई हैं अभाव, उपेक्षा, उत्पीड़न की कहीं बसी तो कहीं उजड़ी हुई अनेक दुनिया। ऐसी ही बारह अलग-अलग दुनियाओं की सच्ची तस्वीर को, जो हमारे इसी देश का हिस्सा हैं, शिरीष खरे ने अपनी पुस्तक ‘एक देश बारह दुनिया’ में बहुत मार्मिक और संवेदनशील तरीक़े से उकेरा है। भारत जैसे विविधतापूर्ण और विषमता से भरे देश की ये बारह अलग-अलग दास्तानें हमें अपने चारों ओर उपस्थित व खड़े किए जा रहे गर्व से लैस कोलाहल पूर्ण विमर्श से परे ऐसी हाशियाई और अनसुनी आवाज़ें सुनाती हैं, जिन्हें जानबूझकर अनसुना कर दिया गया है या फिर उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। राष्ट्रवादी उन्माद के इस दौर में ऐसी किताब का आना हमारे लोगों को झूठ और प्रपंच के नशे से निकलकर असली तस्वीर देखने का अवसर भी देती है। लोग आज जिस तरह से प्रोपेगेंडा और छद्म सूचनाओं के शिकार होते जा रहे हैं और इसके माध्यम से निहित राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति का साधन बनाए जा रहे हैं, उस समय में यह किताब हमें ख़ुद को झकझोरने का मौक़ा देती है। यह पुस्तक पढ़कर पाठक मजबूर होगा यह सोचने पर कि क्या यह वही देश और समाज है जिसका सपना हमने आज़ादी की लड़ाई के लम्बे दौर में देखा था और संविधान के आदर्शों में उकेरा था?
2008 से 2017 के बीच लिखी गई पत्रकारीय रिपोतार्ज़ के आधार पर लिखी गईं इन सच्ची कहानियों में मेलघाट (महाराष्ट्र) में भूख और कुपोषण से हो रही मौतों का मार्मिक आख्यान है तो दंडकारण्य के जंगलों में पसरे पुलिसिया ख़ौफ़ और नक्सली आतंक के बीच पिसते दरभा (छत्तीसगढ़) के लोगों की दारुण व्यथा भी है। कमाठीपुरा (महाराष्ट्र) के कोठों में सिसकती सेक्स वर्करों का संघर्ष, अपने ही देश में परदेसी बने तिरमली घुमन्तुओं के जीवन में स्थाई बदलाव का संकेत करता भूमि-अधिकार का फ़ॉर्मूला, गन्नों की खेती में जुटे ग़ुलाम सरीखे कामगारों का जीवन, महादेव बस्ती के पारधी जनजातियों के जीवन में रोशनी उगाता स्कूल, संगम टेकरी के झुग्गी बस्ती वालों की उजड़ी नियती, बायतु (राजस्थान) जैसे सुदूर ग्रामीण अंचल में व्याप्त जातीय दबंगई और लड़कियों की लुटती अस्मत और अछोटी (छत्तीसगढ़) जैसी जगहों पर सूखे की विपदा में सरकारी मदद और अनुदान के नाम पर चलने वाले निर्दयी खेल जैसे क़िस्से हमें आवाक कर देते हैं। सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि ये तस्वीरें रोज़ हमारे ज़ेहन में झोंकी जा रही छवियों से इतनी अलग क्यों हैं?
शिरीष खरे अपनी पत्रकारीय ज़िम्मेदारी को बख़ूबी समझने वाले व्यक्ति और लेखक हैं। वे लिखते भी हैं—
“यात्राओं से लौटकर जब भी मैंने लिखा है तो अपने समय के एक ज़िम्मेदार गवाह की तरह इस बात को भी ध्यान में रखा है कि मैं मनुष्यता के पक्ष में कितनी अच्छी तरह से गवाही दे पा रहा हूँ।”
एक पाठक के तौर पर मैं पूरे दावे से कह सकता हूँ कि शिरीष इस गवाही में पूर्ण सफल रहे हैं। अपने समाचार पत्र के जगदलपुर संस्करण के लिए रिपोर्टिंग करते हुए वह जो ख़बरें चुनते और बनाते हैं, वही उनकी संवेदनशीलता को उजागर करने के लिए पर्याप्त हैं। पहली ही रिपोर्ट की हैडलाइन— ‘ग्यारह की उम्र में बारह किलोमीटर लम्बा स्कूल का रास्ता’, दूसरी रिपोर्ट— ‘बस्तर में एम्बुलेंस की जगह चल रही चारपाई’, तीसरी रिपोर्ट— ‘बीस साल पहले गई बिजली अब तक नहीं लौटी’, जैसी रिपोर्टिंग से वह दंडकारण्य के क्षेत्र में नक्सली और पुलिसिया दमन के बीच फैले आम लोगों की वंचना, शोषण और अन्याय की मार्मिक तस्वीर खींचते हैं। लेखक इस क्षेत्र में फैले अविश्वास, संघर्ष और अन्याय का जो चित्र खींचते हैं, वह जेमनीबाई की कही इस फ़रियाद में महसूस की जा सकती है जब वह लेखक से विनती करती है कि ‘सरकार तुम्हारी तो सुनेगी। तो हमें ज़मीन का छोटा-सा टुकड़ा दिलवा दो ना! दिलवा दोगे ना!’ (पृ 186)
बारह अध्यायों में फैले इन बारह दुनियाओं के मार्मिक आख्यानों में संगम टेकरी, गुजरात के विकास की वे कहानियाँ पढ़ते हुए हृदय चाक हो जाता है जिसमें ग़रीबों के आशियानों को उजाड़ डालने की सरकारी नीति पूरी क्रूरता से पसरी हुई दिखती है। आशियाने उजड़ जाने या उसके उजड़ने के ख़ौफ़ से ने जाने कितनी ‘मीराबेन को नींद नहीं आती’। पुनर्वास को लेकर फैली हीलाहवाली हैरान कर देती है। लेखक ने इस सामाजिक दुर्दशा की जड़ को पकड़ते हुए लिखा है—
“एक ज़माने में विकास के लिए ग़रीबी हटाना घोषित नारा हुआ करता था। लेकिन, संगम टेकरी इस बात की गवाही देती है कि दशकों तक जब ग़रीबी नहीं हटी तो विकास पथ से ग़रीबों को हटाना कैसे एक अघोषित एजेंडा बन गया है।”
आगे वह विकास के गुजरात माॅडल जैसे विमर्शों का भोथरापन भी उजागर करते हैं।
‘गन्ने के खेतों में चीनी कड़वी’ शीर्षक से लिखा गया आख्यान पढ़ते हुए सच में चीनी का स्वाद कड़वा लगने लगता है। मराठवाड़ा इलाक़े के मस्सा गाँव पहुँचकर लेखक को वहाँ फैली उदासी की वह फ़सल उगी हुई दिखी जो गन्ने की खेती के समांतर ही है। महीनों तक घर से दूर खेतों के इर्द-गिर्द ही गन्ना मज़दूरों की बस्तियाँ उग आती हैं जहाँ की अमानवीय परिस्थितियाँ किसी का भी साहस तोड़ दें। महिलाओं और बच्चियों को तो और भी कई दुश्वारियाँ झेलनी होती हैं। गन्ना मालिकों, बिचौलियों और आसपास के उद्दण्ड स्थानीय मर्दों की बदनीयती झेलना इनकी नियती जैसी बन चुकी है। गन्ना खेतों में खप रहे जोड़े ग़ुलामी और दमन का एक अलग ही रूप दिखाते हैं। ग़ौरतलब है कि बजरंग ताटे, बालाजी मुले और इक्का-दुक्का संगठनों को छोड़कर किसी को भी इसकी परवाह नहीं, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी नहीं।
शिरीष खरे इन हाशियाई जीवन की मुश्किलों, शोषण, वंचनाओं, उदासियों आदि को बयाँ करते हुए उम्मीद के कुछ सिरे भी ढूँढते हुए चलते हैं। कनाडी बुडरुक गाँव, महाराष्ट्र के ख़ानाबदोश तमाशबीन तिरमली घुमंतू जनजाति की ज़िन्दगी में झाँकते हुए लेखक उचित ही इन्हें ‘अपने देश के परदेसी’ कहता है। सदियों से ये नंदी बैल का खेल दिखाकर अपना पेट पालते रहे हैं और कभी भी स्थाई रूप से बस नहीं पाए। इसलिए न ये समाज में अपना स्थान बना पाए न ही मान-सम्मान। सरकारों को दिखाने के लिए इनके पास काग़ज़ नहीं हैं। पर तिरमली मुहल्ले में इनके तीन सौ लोगों के आवास व सामूहिक जीवन को लेखक ने बड़ी उम्मीद से देखा है और आगे का रास्ता भी इसे ही माना है। स्थानीय दबंगों के विरोध और ज़ुल्म-सितम के बावजूद इन्होंने बंजर ज़मीन के अपने पुश्तैनी उपयोग के अधिकार की लड़ाई जीती है। इसमें इन्हें मदद मिली एक अन्य स्थानीय दलित समुदाय की। क्या ये कहानी उत्पीड़ितों के आपसी सहकार और ज़मीन के अधिकार से बदलाव की दिशा नहीं दिखाती?
कमाठीपुरा के रेड लाइट एरिया में रह रही औरतों की स्थिति पर लिखी रिपोर्ट हो या मेलघाट में पसरे भूख और कुपोषण की दास्तान, आष्टी (महाराष्ट्र) के सैय्यद मदारियों की ठहरी ज़िन्दगी का वर्णन हो या फिर महादेव बस्ती के पराधी जनजातियों की ज़िन्दगी में सूरज बनकर उगे स्कूल की कहानी, इन सभी आख्यानों में शिरीष खरे ने बड़ी मेहनत से सच्चाई की उन परतों को उधेड़ा है जिसे इस देश की संस्कृति, समाज व सरकारों ने ही रचा है। इनसे गुज़रते हुए अपने आसपास पसरी उन विडम्बनाओं का आभास हो जाता है जिन्हें विकास के भ्रम की चमकीली परत लगाकर ढक दिया गया है। ख़ुद लेखक की निजी संवेदनशीलता और जन के प्रति जुड़ाव को हर पंक्ति में महसूस किया जा सकता है। हमारे देश में ऐसी बहुत-सी कहानियाँ और भी हैं जो आज तक अनकही ही रही हैं। ‘एक देश बारह दुनिया’ किताब में आए बारह रिपोर्ट आधारित आख्यान महाराष्ट्र (बारह रिपोर्ट में से छह यहीं से हैं), छत्तीसगढ़ (तीन), गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान (प्रत्येक से एक-एक) के हैं। ऐसी कई यथार्थ से भरी कहानियाँ इन राज्यों सहित पूरे देश में और भी हैं जिन्हें लिखे-कहे और समझे जाने की ज़रूरत है। आख़िर बदलाव की शुरुआत तो ऐसे ही होगी। शिरीष खरे ने इसकी एक बेहतरीन शुरुआत कर ही दी है। कुछ और लोगों ने भी लिखा है। पर इसे और अधिक मात्रा में लिखे जाने और दुहराने की ज़रूरत है।
अन्त में एक बात इस किताब को लेकर ज़रूर कहना चाहूँगा। इस किताब ने मेरी संवेदनशीलता और समझ को इतना विस्तार दिया है कि यदि मैं इस वर्ष कोई और किताब न भी पढ़ूँ तो भी ख़ुद को सन्तुष्ट पाऊँगा। निःसंदेह यह पुस्तक भारतीय अकादमिक जगत में मील का पत्थर साबित होगी। शिरीष खरे जी से उम्मीद बढ़ गई है। इनसे आगे और भी बेहतरीन कृतियों की अपेक्षा व प्रतीक्षा रहेगी।
'एक देश बारह दुनिया' पर अशोक कुमार की टिप्पणी
'एक देश बारह दुनिया' उर्दू बाज़ार से यहाँ ख़रीदें (10% अतिरिक्त छूट के लिए कूपन कोड 'POSHAMPA' प्रयोग करें)