मैंने बच्चे को नहलाती
खाना पकाती
कपड़े धोती
औरत से पूछा—
‘सुना तुमने पैंतीस साल हो गए
देश को आज़ाद हुए?’
उसने कहा ‘अच्छा’…
फिर ‘पैंतीस साल’ दोहराकर
आँगन बुहारने लगी
दफ़्तर जाती हुई, बैग लटकाए
बस की भीड़ में खड़ी औरत से
यही बात मैंने कही,
उसने उत्तर दिया—
‘तभी तो रोज़ दौड़ती-भागती
दफ़्तर जाती हूँ मुझे क्या मालूम नहीं!’
राशन-सब्ज़ी और मिट्टी के तेल का पीपा लिए
बाज़ार से आती औरत से
मैंने फिर वही प्रश्न पूछा,
उसने कहा, ‘पर हमारे भाग में कहाँ!’
फिर मुझे शर्म आयी
आख़िरकार मैंने अपने से ही पूछा—
‘पैतींस साल आज़ादी के…
मेरे हिस्से में क्या आया?’
उत्तर मैं जो दे सकती थी,
वह था…
स्नेहमयी चौधरी की कविता 'पूरा ग़लत पाठ'