जब खिसियाई दोपहर में बदल रही थी
मायूस सुबह,
बासी हो चला था
ताज़ी अखबार,
दीवाल पर सूख चुकी थी
चाय की बेरंग रंगत,
दिन के कैनवास पर-
खींचकर आड़ी-सीधी रेखाएँ
पिघल रहा था शाम का डर,
और टूट रहा था
हिचकियों का दम
हाथ की लकीरों पर,
तब यकायक
नाखून में फँसी आख़िरी सिसकी
उछलकर घुल गयी
तुम्हारी साँसों के खेत में
और उग आया वहाँ
एक काफ़िर सपना…