रात का अन्तिम पहर था
चाँद ओझल हो रहा था
अनमनी-सी यूँ ही सोचा
रह गया क्या इश्क़ मेरा अधूरा
कौन मेरा मौन समझे
कौन है जो व्यथा परखे
फिर यूँ हुआ
अचानक नींद ने मुझको समेटा
स्वप्न की चादर में लपेटा
अहा!
आसमान में इंद्रधनुष खिल उठा
हर रंग पर नाम उसका लिख गया
जिसको लिखकर अनगिनत हैं पेज फाड़े
जिसको बोलकर मेरे होंठ कांपे
चलने लगी पुरवाई मद भरी
उसकी खुश्बू से सांसें भर गयीं
तड़पकर ख़्वाब में ही देखा क्षितिज पर
था शफ़क़ का रंग फ़ैला आसमां पर
रात आने को बेताब थी जुल्फें बिखेरे
खड़ा था इक पुरनूर चेहरा बाहें पसारे
तमन्ना सर उठाकर लगी सिसकने
चली मैं सर झुकाए उसकी बाहों में सिमटने
लगा फ़िज़ा में इश्क़ इश्क़ का शोर गूंजता
किसी ने धीमे से कहा
कभी भी इश्क़ ख़ुद को अधूरा नहीं छोड़ता
नहीं छोड़ती ये बेख़ुद किसी को
ये वो शय है जो
ख़ुद ही मुक़म्मल कर लेती ख़ुद को!