शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः। (गीता)
मेरा नाम ‘टाइगर’ है, गो शक्ल-सूरत और रंग-रूप में मेरा किसी भी शेर या ‘सिंह’ से कोई साम्य नहीं। मैं दानवीर लाला अमुक-अमुक का प्रिय सेवक हूँ; यद्यपि वे मुझे प्रेम से कभी-कभी थपथपाते हुए अपना मित्र और प्रियतम भी कह देते हैं। वैसे मैं किस लायक़ हूँ? मतलब यह है कि लालाजी का मुझ पर पुत्रवत प्रेम है। नीचे मैं अपने एक दिन के कार्यक्रम का ब्यौरा आपके मनोरंजनार्थ उपस्थित करता हूँ—
6 बजे सवेरे: घर की महरी बहुत बदमाश हो गई है। मेरी पूँछ पर पैर रखकर चली गई। अंधी हो गई क्या? और ऊपर से कहती है—अँधेरा था। किसी दिन काट खाऊँगा। गुर्र-गुर्र… अच्छा-चंगा हड्डीदार सपना देख रहा था और यह महरी आ गई—इसने मेरे सपने के स्वर्ण-संसार पर पानी फेर दिया। विचार-शृंखला टूट गई। बात यह है कि मैं एक शाकाहारी घर में पल रहा हूँ। अतः कभी-कभी माँसाहार का सपना आ जाना पाप नहीं! यह मेरी अतृप्त वासना है, ऐसा परसों मालिक से मिलने को आए एक बड़े मनोवैज्ञानिक जी कह रहे थे।… फिर सो गया।
7 बजे: कोई कमबख़्त आ ही गया। नवागन्तुक दिखायी देता है। बहुत भूँका—पर नहीं माना। ज़रूर परिचित होगा। जाने दो—अपने बाबा का क्या जाता है? डेढ़ सौ वर्षों से ब्रिटिश नौकरशाही ने हमें यही सिखाया है—किसी की सॉरी, किसी का सर, अपने से क्या? हम तो भुस में आग लगाकर दूर खड़े हैं तापते!
8 बजे: नाश्ता-पानी। आज ब्रेकफ़ास्ट की चाय पर बहुत गर्मागर्म बहस हो रही है! क्या कारण है? मालिक कह रहे हैं कि इन मज़दूरों ने आजकल जहाँ देखो, वहाँ सिर उठा रखा है। कुचलना होगा इन्हें! जान पड़ता है—मज़दूर कोई साँप है। मालिक के मित्र बतला रहे थे कि उत्पादन में कमी हो रही है। हड़तालों के मारे तबाही मची हुई है। ऐसा कहते हुए उन्होंने अपनी नई ‘सुपरफ़ाइन’ धोती से चश्मे की काँच पोंछकर साफ़ की थी। मालिक की लड़की कुछ उद्धत जान पड़ती है; बाप से मतभेद रखती है। यही तो कुत्तों की जाति और मानव-जाति में अंतर है—कुत्ता सदा वफ़ादार रहता है; आदमी, ये अहसान-फ़रामोश हो जाते हैं!
9 बजे: बग़ीचे में मालिक के छोटे लड़के (और आया उनके साथ) सैर के लिए आए। फूलों के विषय में आया कुछ भिन्न मत रखती है; मालिक के लड़के का कुछ और मत है। मेरी दृष्टि से तो ये सब काट-तराश बेकार-सी चीज़ है—मगर नहीं—मैं अपना मत नहीं दूँगा—पहले मैं यह जान लूँ कि फूलों के बारे में मालिक का क्या मत है? तभी अपना मत देना कुछ ‘सेफ़’ होगा।
10 बजे: एक नए ढंग के जानवर से मुलाक़ात हो गई। यह ‘फ़ट् फ़ट् फ़ट्’ आवाज़ बहुत करता है, नथुनों से धुआँ उगलता मालिक चाहता है तब रुकता है, चाहता है तब सरपट दौड़ता है। बड़ी चमकीली आँख है उसकी। मैंने भरसक उसकी नकल में भूँकने और दौड़ने की कोशिश की—मगर यह किसी विदेश से आया हुआ प्राणी जान पड़ता है। जाने दो, अपने को विदेशियों से क्या पड़ी है? अपने राम तो ‘स्वदेशी’ के पुरस्कर्ता हैं—चाहे नाम ही स्वदेशी हो और बनाने के यंत्र सब विदेश से आते हों।
11 बजे: भोजन। इस सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि अच्छे-अच्छे तनख़ावाले बाबुओं को जो नसीब न होगा, ऐसा उम्दा पकवान हमें मिल जाता है। सब भगवान की लीला है। जब वह खाता हूँ, तो भूल जाता हूँ कि मेरे गले में कोई पट्टा भी है या मुझे भी कभी मालिक ठोकर मारता है। मुझे स्वामी की ठोकर अतिशय प्रिय पुचकार की भाँति जान पड़ती है।
12 बजे से 3 बजे तक: विश्रांति।
3 बजे: सहसा किसी का स्वर। निश्चय ही वह मालिक की बड़ी लड़की का मुलाक़ाती, भूरे-भूरे बालोंवाला तरुण है! वह मखमल की पैंट पहनता है, पहले मैंने उसे किसी चितकबरी बिल्ली का बदन ही समझा—वह ग़रीबों की बात बहुत करता है! आज उसने जो चर्चा की, उसमें कला का भी बहुत उल्लेख था। जान पड़ता है कि शिकारी कुत्ते को जैसे एक ख़ास काम के लिए पालकर बड़ा किया जाता है; वैसे ही यह कलाकार नाम का प्राणी भी समाज में किसी ख़ास हेतु से बढ़ाया जाता है।
4 बजे: शाम की चाय के वक़्त बहुत मंडली जुटी थी। घर ख़ास चाय-घर बन गया था। आज ‘हिंदुत्व’, हिंदू-सभा, ‘हिंदू-वीर’, ‘हिंदू-दर्शन’ आदि विषयों पर बड़ी बहस हुई। कई लोग थे जो इस बारे में उदासीन थे कि वे अपने को हिंदू कहें या अहिंदू। दो-चार नौजवान इस बारे में बहुत ‘टची’ थे। जैसे कुत्ते की थूथड़ी पर कोई बेंत मारे तो वह तिलमिला उठता है; वैसे ही उनके हिंदुत्व पर चोट करने से ऐसा जान पड़ता था कि उनके सतीत्व पर चोट हो रही है। मैं जानना चाहता हूँ कि हिंदू क्या चीज़ है? यह किस चिड़िया का नाम है? मेरा पुराना मालिक ईरानी था—और तब भी मैं सुखी था—अब भी हूँ। ग़ुलाम का कोई धर्म नहीं होता—कहते हैं अब यहाँ के आदमी आज़ाद हो गए हैं—मगर पैसे की ग़ुलामी तो अभी बाक़ी ही है। जैसे प्रसन्न होकर मेरी जाति के प्राणी अपनी पूँछ हिलाने लगते हैं; वैसे मैंने कई विद्वान, चरित्रवान, निष्ठावान, धर्मवान (माने जानेवाले) महानुभावों को पैसे की सत्ता के आगे पिघलते हुए देखा है। हिंदुत्व बड़ा है या पूँजीत्व?
5 बजे: बाहर फिर घूमने के लिए चला। मालकिन मेमसाहिबा ख़ास कपड़े पहने, ऊँची एड़ी के जूते, रंगीन साड़ी वग़ैरह के साथ थीं। मेरी भी चेन ख़ास ढंग की थी। यह तभी पहनायी जाती है जब मालकिन किसी उत्सव-विशेष या बाइस्कोप वग़ैरह में शामिल होती हैं। आज भी कुछ भीड़ देखने को मिलेगी। मेरी दृष्टि में सभा-समाजों की भीड़ और सिनेमा-थिएटर की भीड़ में ख़ास अंतर नहीं।
6 से 8.30 बजे तक: एक सफ़ेद पर्दे पर हिलती-बोलती तस्वीरें देखीं। अरे, तो यह आदमी जो अपने आपको बहुत सभ्य समझता है सो कुछ नहीं है। जैसे हम लोगों में प्रेमातुरता होती है, वैसे ही इनके चलचित्रों की नायक-नायिकाएँ दिखाती हैं। कोई ख़ास अंतर लड़ने-भिड़ने में भी नहीं—जैसे दो श्वान एक हड्डी के लिए लड़ते हैं, दो मानव एक मानवी के लिए या मत के लिए या पराए देश के लिए। अच्छा हुआ मैंने यह दृश्य देख लिया, जिसे हज़ारों मानव चुप बैठे हुए आँखों के सहारे निगल रहे थे। मेरा स्वप्न भंग हो गया। मानव जाति को मैं बड़ा आदर्श समझता था—परंतु वैसी कोई विशेष बात नहीं।
9 बजे: सोया। क्योंकि फिर सवेरे जागना है, वही पूँछ हिलाना है—तब डबलरोटी का टुकड़ा शायद मिले; और ज़्यादा ख़ुशामद करने पर दूध भी मिल सकता है!
अच्छा भुः भुः (मानवों की भाषा में अनुवाद: अच्छा तो राम-राम!)
प्रभाकर माचवे की कविता 'चूहा सब जान गया है'