एक दिन यहाँ मैंने एक कविता लिखी थी,
यहाँ—जहाँ रहना मुझे नापसन्द था।
और रहने भेज दिया था।
जगह वह भी, जहाँ रहना अच्छा लगता है
और रहता गया हूँ,
वहाँ शायद ही हो कि कविता कभी लिखी हो।
आज फिर इस नापसन्द जगह
डाल से टूटे पत्ते की तरह
मारा-मारा आया हूँ,
और यह कविता लिख गई है,
इस जगह का मैं कृतज्ञ हूँ,
इस मिट्टी को सर लगाता हूँ,
इसे प्यार नहीं करता, पर
बहुत-बहुत देता हूँ आदर,
यह तीर्थ-स्थल है, जहाँ
मैं मुसाफ़िर ही रहा,
यह वतन नहीं,
जहाँ जड़ और चोटी
गड़ी हुई,
जो कविता की प्रेरणाओं से अधिक महत्व की बात है।
यहाँ मैं दो बार मर चुका हूँ—
एक दिन तब जब पहली कविता
यहाँ लिखी थी,
और दूसरे आज जब इस कविता
की याद में कविता
लिख रहा हूँ—
घर के शहर में जीता रहा हूँ
और मरने के बाद भी
जीता रहूँगा—
एक लाकेट में क़ैद,
किसी दीवार पर टंगा चित्रार्पित,
एक स्मृति-पट पर रक्षित अदृश्य
अमिट।
लेकिन यहाँ से कुछ ले जाऊँगा,
कुछ तो पा ही
चुका हूँ—दो-दो कविताएँ,
दिया कुछ नहीं है, देना कुछ नहीं,
सिवा इसके—
मेरे प्रणाम तुम्हें,
इन्हें ले लो, इन्हें।
दक्षिण की एक भाषा सीखिए