(लगभग सवा सौ साल पहले की बात है। इस लेखक ने देखा ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न’। स्वप्न में उसने बिचारा कि देह लीला समाप्त हो जाने के पहले अपनी स्मृति को बनाए रखने के लिए कुछ करना चाहिए। पहले उसने सोचा, एक देवालय बनवा दूँ, पर कठिनाई यह थी कि ‘यह अँगरेजी शिक्षा रही तो मंदिर की ओर मुख फेर कर भी कोई नहीं देखेगा।’ फिर मन में आया कि कोई किताब लिखी जाए। पर यह भी निरापद नहीं था, क्योंकि ‘बनाने की देर न होगी कि कीट “क्रिटिक” काट कर आधे से अधिक निगल जाएँगे।’ अंत में, लेखक ने तय किया कि वह स्कूल खोलेगा। प्रस्तावित स्कूल की नियमावली की जैसी कल्पना की गई है, उसके आईने में हम आज की अपनी शिक्षा प्रणाली के कई अक्स देख सकते हैं।)

(1) नाम इस पाठशाला का ‘गगनगत अविद्यावरुणालय’ होगा।

(2) इसमें केवल वंध्या और विधवा के पुत्र पढ़ने पावेंगे।

(3) डेढ़ दिन से अधिक और पौने अट्ठानबे से कमती आयु के विद्यार्थी भीतर न आने पावेंगे।

(4) सेर भर सुँघनी अर्थात हुलास से तीन सेर तक कक्षानुसार फीस देनी पड़ेगी।

(5) दो मिनट बारह बजे रात से पूरे पाँच बजे तक पाठशाला होगी।

(6) प्रत्येक उजाली या अमावस्या को भरती हुआ करेगी।

(7) पहले पक्ष में स्त्री और दूसरे पक्ष में बालक शिक्षा पावेंगे।

(8) परीक्षा प्रतिमास होगी, परन्तु द्वितीया द्वादशी की संधि में हुआ करेगी।

(9) वार्षिक परीक्षा ग्रीष्म ऋतु, माघ मास में होगी। उनमें जो पूरे उतरेंगे वे उच्च पद के भागी होंगे।

(10) इस पाठशाला में प्रथम पाँच कक्षा होंगी और प्रत्येक ऋतु के अंत में परीक्षा लेकर नीचेवाले ऊपर की कक्षा में भर लिए जायेंगे।

(11) प्रतिपदा और अष्टमी भिन्न, एक अमावस्या को स्कूल और खुलेगा, शेष सब दिन बंद रहेगा।

(12) किसी को काम के लिए छुट्टी न मिलेगी, और परोक्ष होने में पाँच मिनट में दो बार नाम कटेगा।

(13) कुछ भी अपराध करने पर चाहे कितना भी तुच्छ हो ‘इंडियन पिनल कोड’ अर्थात ताजीरात हिंद के अनुसार दंड दिया जाएगा।

(14) मुहर्रम में एक साल पाठशाला बंद रहेगी।

(15) मलमास में अनध्याय के कारण नृत्य और संगीत की शिक्षा दी जाएगी।

(16) छल, निंदा, द्रोह, मोह आदि भवसागर के चतुर्दश कोटि रत्न घोलकर पिलाए जाया करेंगे।

(17) इसका प्रबंध धूर्तवंशावतंस नाम जगतविदित महाशय करेंगे।

(18) नीचे लिखी हुई पुस्तकें पढ़ाई जाएँगी।
व्याकरण – मुग्धमंजरी, शब्दसंहार, अज्ञानचंद्रिका।
धर्मशास्त्र – वंचकवृत्तिरत्नाकर, पाखंडविडंबन, अधर्म-सेतु।
वैद्यक – मृत्युचिंतामणि, मनुष्यधनहरण, कालकुठार।
ज्योतिष – मुहूर्तमिथ्यावली, मूर्खाभरण, गणितगर्वांकुर।
नीतिशास्त्र – नष्टनीतिदीप, अनीतिशतक, धूर्पपंचाशिका।
इन दिनों की सभ्यता के मूल ग्रन्थ – असत्यसंहिता, दुष्टचरितामृत, भ्रष्टभास्कर।
कोश – कुशब्दकल्पतरु, शून्यसागर।
नवीन नाटक – स्वार्थसंग्रह, कृतघ्नकुलमंडन।

अब जिस किसी को हमारी पाठशाला में पढ़ना अंगीकार हो, यह समाचार सुनने के प्रथम, तार में खबर दें। नाम उसका किताब में लिख लेंगे, पढ़ने आओ चाहे मत आओ।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोए। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है।