‘Ek Qalam Aisi Bhi’, a poem by Bhupendra Singh Khidia
नौवीं कक्षा की हिन्दी की किताब के
बाहरवें पन्ने पर आयी पंक्तियों को
अण्डरलाइन करने के लिए जैसे ही मैंने
पैन की निप नाख़ून शब्द पर रखी
‘ना’ अदृश्य हो गया
उसी समय मैंने ‘ना’ की छाया-सी
पेन की निप के अन्दर जाती हुई देखी
बचा हुआ ‘ख़ून’ भी
क़लम की निप ने चूसकर
मिटा दिया।
पल भर में ही पूरे पन्ने के सारे शब्द और
पल भर में पूरा चेप्टर ही अदृश्य हो गया
मैं डर गया कि
अचानक मेरी नींद टूट गई
माथे से पसीना ढलकर
गर्दन पर झूलने लगा
और याद दिलाने लगा कि मैंने ‘होमवर्क’ नहीं किया
मैंने पास ही रखी हिन्दी की किताब उठायी
और पन्ने पलटने लगा
जैसे ही मैं बाहरवें पन्ने पर पहुँचा तो
मैनें पाया कि
मेरी किताब में बाहरवें से
चौहदवें पन्ने तक एक सफ़ेदी बिखरी हुई है
यानी! ख़ालीपन
मानों बाहरवें से चोहदवें पन्ने का
बाहरवां भी मनाया जा चुका हो
और ये सफ़ेदी उनकी शोकसभा की झलक हो जो
शब्द मर चुके।
लेकिन
किसी की मौत से किसी को तो फ़ायदा हो ही जाता है
शायद इस बार मुझे हुआ
अब मुझे होमवर्क नहीं करने का बहाना मिल गया
अगले दिन जब मेरी ज़ुबान पर बहाना तैयार बैठा था
तब मैंने पाया कि कक्षा में सभी के तीन पन्ने ख़ाली थे
उससे भी हैरानी की बात ये थी कि
मुझे छोड़कर किसी और को ये तक न मालूम था
कि वहाँ कुछ था भी
ये तक न पता था कि कल ही पढ़ा गया था
मुझे वो क़लम यमराज से भी प्रबल नज़र आयी
जो अस्तित्व के साथ याद भी नष्ट कर देती हो
अपने हाथ लगी इस जादुई ताक़त को देखकर मैं ज़ोर से चीख़ा
कि मेरी आँख खुल गई
गर्दन पर पसीना झूलने लगा।
अब मैं अट्ठारह वर्ष का हूँ।
मैंने पुराने बॉक्स में रखी वही सपने वाली क़लम उठायी
और उसे रख दिया ‘गरुड़ पुराण’ पर
जिसमें मेरे मस्तिष्क ने हाल ही में पढ़ी जातीय असमानता
की झाँकी।
मैंने क़लम रख दी कुरान के पन्नों पर
जिनमें मैंने पढ़ी औरत की ज़मीन और वस्तु से की गई तुलना
मैनें क़लम रख दी तुलसी के कलाम पर
जहाँ लिक्खा गया था
‘ढोल, गँवार, क्षुद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’
और ये दौर तब तक चलता रहा जब तक मैंने
हर उस आख़िरी बात पर क़लम न रख दी
जिसने हिंसा, क्रूरता और असमानता का बोध
जीवित रखा ईश्वर के नाम पर।
आख़िरी ऐसी किताब पर पैन रखने के बाद
मैनें वही क़लम रख दी घूँघट, बुर्क़ों
और उस सिंदूर पर जो जिसने औरतों को कई नयी
बीमारियों के बीच लाकर खड़ा कर दिया
कि अचानक
भ्रम टूट गया
गर्दन से झूल रहा था पसीना
और मेरे सामने था एक मैदान
जो कल तक हरा भरा जंगल हुआ करता था
मेरे मस्तिष्क में थी वे सारी ख़बरें
जो दिखती थी इंसान के अत्याचारों की झाँकी
पल-पल नष्ट होती पृथ्वी की झाँकी
और हाथ में थी वही क़लम, वही पैन
जिसे मैंने इस बार शब्दों पर नहीं, घूँघट व सिंदूर पर नहीं,
एक इंसान की हथेली पर आज़माया।
इस बार शब्द से भी आगे सभी इंसानों का अस्तित्व मुझे
मिटता नज़र आता ही कि
पेन की स्याही ने हथेली पर एक आसमानी बिंदु छोड़ दिया जिसे मिटाने के लिए भी हाथ धोने पड़ेंगे
ये सोचकर मेरे हाथ से क़लम छूट गई कि
न जाने कितने हाथ धुलवाने हैं जिन पर
स्याही के नहीं, ज़हर के बिंदु अंकित हैं।