एकतरफा प्रेम उस पौधे की तरह है जिसे पोषित करके स्वयं ही उसकी हत्या करनी पड़ जाए या स्वयं की।

प्रेम की हत्या क्या सम्भव है?

वास्तव में नहीं, प्रेम तो जीवन का ही दूसरा नाम है। तो क्यूं न जीवन से ही मित्रता की जाए।

आशाओं और विश्वास का खाद-पानी उस पौधे को वृक्ष तो कर देता है, पर वही वृक्ष परिवर्तित हो जाता है एक विशाल चट्टान में, जिसके उस ओर देख पाना कठिन हो जाता है जबकि उस ओर क्षितिज फैला हुआ है उड़ने के लिए, अंतहीन, छोर रहित क्षितिज। वहाँ सूरज है, चंद्रमा है और अनगिनत तारे हैं, जो बेशर्त उजाला बांटने के लिए तैयार हैं। उस ओर खुले मैदान भी हैं जहाँ घुटन का कोई स्थान नहीं है। संपूर्ण जीवन और संभावनाओं से भरा हुआ है वो दूसरा ओर।

परन्तु चट्टान ने मार्ग रोका हुआ है। इसे लांघ पाना ही चुनौती है जो असम्भव सी जान पड़ती है। एकमात्र उपाय है उम्मीद को नष्ट कर देना? चमत्कार के होने के भ्रम से स्वयं को बाहर निकाल लेना?

नहीं। ये तो प्रेम की प्रवृत्ति ही नहीं, वो तो निस्वार्थ है। फिर भी पनपेगा, खिलेगा ही। उपाय है कि स्वयं को खोजा जाए, स्वयं से प्रेम किया जाए। सरल नहीं है पर सम्भव है। और ये कैसे सम्भव है इसके लिए रास्ते बहुत हैं, पर चुनना तो स्वयं को ही होगा। कोई भी दूसरा ‘स्वयं’ को नहीं समझ सकता।

अन्यथा उसी वृक्ष का अंधकार जो छाँव जान पड़ता है, सुबह को दूर कर देगा। उसके फल-फूल पीड़ा से भरे होंगे। और अंततः उस वृक्ष को भी सूखना ही है, तब क्या होगा?

यदि आपने स्वयं को खोज लिया, पूरा साहस लगा कर चट्टान को पार कर लिया तो उस ओर आपका स्वागत है। और सम्भव है कि फिर कोई प्रेम का दीप अनायास ही जल उठे बिना किसी प्रयास के। और यदि नहीं भी जले तब भी आप स्वयं से अवश्य ही प्रेम कर पाएंगे, फिर बाहर किसी भी प्रेम की आवश्यकता नहीं रह जाऐगी।

प्रेम पूर्ण हो जाऐगा स्वयं में ही।

रिया गुप्ता (प्रहेलिका)
Hi....i am riya ...riya prahelika is my pen name. Writing is my medicine Poetry is my doctor U can call me an animal lover and strictly a tea lover..