हाल में दो बड़ी बातें हुईं। अलग-अलग आकार-प्रकार की दो उदास सूचनाएँ मिलीं। एक ख़बर तो यह रही कि छोटी बचत पर ब्याज दर घटी और दूसरी यह कि फ़ेसबुक खाता खोलने के लिए अब आधार ज़रूरी होगा। ब्याज दर में घटौती को लेकर अधिकांश यह सोचकर अधिक चिंतित नहीं हुए कि माया महाठगिनी हम जानी। धन तो निरी मोहमाया है जी। लोगों ने इसे मुल्क के सर्वांगीण विकास में अपना किंचित योगदान या प्रारब्ध मानकर चुप्पी साध ली। वैसे भी सयाने बता चुके हैं कि आशंकाओं से मुँह मोड़ लेने से आगामी हानिकारक दंश का असर कुछ कम हो जाता है। कभी-कभी आसन्न विपत्तियाँ टल भी जाती हैं। इस सत्य को टिटहरी और शतुरमुर्ग भली प्रकार पहले से ही जानते और मानते रहे हैं। बेबसी में मौन हमेशा ही बड़ा कारगर होता है। ऐतिहासिक चालाक चुप्पियों के हुनरमंद इस्तेमाल की वीरगाथाओं से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। उपयुक्त समय पर धारी गयी समुचित ख़ामोशी अंततः आपातकाल की त्रासदी को भी अनुशासन पर्व में तब्दील करती देखी-सुनी गयी है।

फ़ेसबुक खाते को आधार से जोड़ने की ख़बर ने तमाम क़िस्म के विमर्शवादियों को हिलाकर रख दिया है। उन्हें लग रहा है कि हाय अब क्या होगा, उनका तो सारा मेकअप ही सरेआम धुल जायेगा। आधार वाले अंगूठे की छाप तो उनका पूरा कच्चा-चिट्ठा खोलकर रख देगी। सबसे बड़ी बात यह कि फ़ेसबुक पर जब पिंकी की जगह बंता दिखेगा तो उसे कौन संता देखना चाहेगा? चुटकुले की दुनिया के हंसोड़ संता बंता इस तरह के मज़ाक को शायद ही बर्दाश्त कर पायें। सब जानते हैं कि अभी तक तो कोई रिंकी सोशल मीडिया पर ‘आह’ भी भरती है तो कुछ ही समय में उसकी हिमायत में हजारों ‘वाह’ आननफानन में आ धमकती हैं। पहले सरेआम आह आदि भरने से सुंदरियाँ बदनाम हो जाया करती थीं। पर अब वक़्त बदल चुका है। अब तो ‘आह’ सुनते ही उसके इर्दगिर्द दिल के निशान वाले लाइक्स की स्टेट्स पर इतनी गहमागहमी हो जाती है कि खुले बाज़ार में नर्म मासूम दिलों की किल्लत हो जाने की बात सुनी गयी है। वाक़ई, आजकल दिल देह के भीतर कम सोशल मीडिया पर अधिक धड़कते पाए जाते हैं। यही जगह दिल के विपणन का सबसे सस्ता और सहज उपलब्ध वायदा बाज़ार है।

आभासी दुनिया पर शिनाख़्त बदलने का जो खेल होता है, वह बेमिसाल है। हालांकि वह रोटी के उस खेल से इतर होता है, जिसकी निशानदेही कवि धूमिल ने कभी की थी। यह रहस्य अब उजागर हो चुका है कि रोटी बेलने, उसे खाने और उससे खेलने वालों के अलावा एक तबका ऐसा भी है जो दिल को इधर-उधर लगातार चिपकाते रहने में सदैव सुकून पाता है। अभी तो निजी जानकारी में थोड़ी-सी हेराफेरी करके कोई भी सरलता के साथ परकाया प्रवेश कर सकता है। कोई भी लल्लू-जगधर बिग बी बन सकता है। इतवारी या मंगली ऐश्वर्या बन सकती है। मोहल्ला स्तर का छिछोरा नेशनल लेवल का दरवेश बन जाता है। पहचान में जरा-सी घालमेल और प्रोफाइल पिक में थोड़ी सी फोटोशॉप आदमी को क्या से क्या बना सकती है। देखते ही देखते जेंडर तक बदला जा सकता है। रूप रंग रूपांतरित हो सकता है। बीत गया वक़्त और रीत गया यौवन पूरी आनबान शान के साथ यकायक वापस लौट सकता है। वॉटर ऑफ इण्डिया वाले जादुई मटके में से कलकल करता जल बार-बार उलीचे जाने के बावजूद बहता ही जाता है।

यह तो सब जानते ही हैं कि असलियत की ज़मीन बड़ी बेरंग खुरदरी होती है। उस पर नंगे पाँव चलते हुए यथार्थवादी कंकड़ बेतहाशा चुभते हैं।फ़ेसबुक ही वह उड़न खटोला है, जो अपने खाता धारक को उसकी पहचान और समय के आरपार ले जाता है। इसके जरिये ही साठ पार का आदमी वयसंधि की दहलीज़ पर खड़े हठीले युवकोचित सपने इत्मिनान से देख लेता है और जीवन के पचास से अधिक वसंत निहार चुकी चिरयुवती एकदम हाईफाई टीनएजर टाइप की बन जाती है।

फ़ेसबुक खाता जब आधार से जुड़ेगा तब तो सारी पोल ही खुल कर रह जायेगी। सारे किये धरे पर पानी ही फिर जाएगा। पता लगेगा कि जिसे वे षोडशी समझ प्यार और मनुहार के पेच लड़ाने में रात-दिन मशगूल रहे, वह तो दरअसल कल्लू पतंगफ़रोश निकला, जो गलाकाट चाइनीज़ माझा और सस्ती, टिकाऊ व सुंदर पतंग बाजार में आ जाने के कारण लगभग बेरोजगार हो जाने की स्थिति के क़रीब है। वह अब या तो फ़ेसबुक पर तरह-तरह के वेष भरता है या तिमंजले पर चढ़कर अपने कबूतर उड़ाता और दूसरों के परिदों को फंसाता है।

ब्याज दर घटे तो घट जाए। माया भले मोहक हो लेकिन है तो आनी जानी। आधार के जरिये मौज़ मस्ती के मूलधन में तो कम से कम कोई नाहक सेंधमारी न करे।

यह भी पढ़ें: असना बद्र की नज़्म ‘फ़ेसबुक’

निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]