अक्सर कहा जाता है मुझे
फ़िक्र नहीं किसी चीज की
पर लगता है मुझे
करनी ही नहीं आती फ़िक्र

जबकि मैं पढ़ता हूँ
भूख से मरते हुए बच्चों की ख़बरें
मुझे होती है फ़िक्र
रात के समय के भोजन की

जब सुनता हूँ कि
धरती से ख़त्म हो रहा पानी
मुझे होती है फ़िक्र गर्मी में दुबारा नहाने की
उसी फ़िक्र में मैं पसीने से तर-बतर
फ़्रिज से बोतल का पानी पी लेता हूँ

जब मालूम होता है
मार दिया है भीड़ ने घेरकर
एक चोर को चौराहे पर
मैं चेक करता हूँ झट से
अपना पर्स, मोबाइल

जब पढ़ता हूँ ग्लोबल वार्मिंग के कारण
बढ़ता जा रहा तापमान
होती है मुझे फ़िक्र
एक नयी एसी खरीदने की

जब अस्पताल में देखता हूँ
बढ़ते हुए मरीज़ों की संख्या
फ़िक्र होती है भविष्य में
मुझे अधिक पैसे कमाने की

जब मालूम होता है मुझे
धरती पर कम होते जा रहे पेड़
मैं फ़िक्रमंद होता हूँ
अपने गिरते हुए बालों के लिए

जब रिश्तेदार मुझसे पूछते हैं मेरे
भविष्य निर्धारण का सवाल
इन सब के बीच फ़िक्र हो आती है मुझे
बनारस की भीड़-भाड़ वाली
संकरी गलियों में
पसीने से तर-बतर
उस बूढ़े रिक्शाचालक की
जो तेज धूप में तीन लोगों को बिठाए
कोशिश कर रहा था
रिक्शा और तेज चलाने की

पता नहीं पर क्यों
मैं सही समय पर नहीं कर पाता
सही चीज की फ़िक्र
हमेशा से लगता है यही
शायद मुझे फ़िक्र करनी ही नहीं आती।

दीपक सिंह चौहान 'उन्मुक्त'
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसम्प्रेषण में स्नातकोत्तर के बाद मीडिया के क्षेत्र में कार्यरत. हिंदी साहित्य में बचपन से ही रूचि रही परंतु लिखना बीएचयू में आने के बाद से ही शुरू किया ।