‘Firoz Khan Ko Sambook Banana Hai’, a poem by Amit Pamasi

संस्कृत पढ़ाने पर
फ़िरोज़ खान की नियुक्ति ने
फिर उस बहस को ताज़ा किया
जो परम्परा को
रखती है सबसे ऊपर
जकड़े रखती है
यथास्तिथिवाद को
गहरे से

फिर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
कि विधि और नियम क्या कहते हैं
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि
बराबरी का अधिकार
है सबको
भले प्रावधान हो
संविधान सम्मत

फ़िक्र होने लगती है
भला कैसे पढ़ा पाएगा
एक विधर्मी
हमारी दैवभाषा
बिना यज्ञोपवीत धारण किये

संस्कृत का उच्चारण भले
त्रुटिरहित हो उसका
वेदों का ज्ञान गहरा हो उसका
पर जनमना तो नहीं है
त्रुटिरहित उसका
जनम क्यों लिया
एक विधर्मी के घर उसने

भले इसमें उसकी कोई त्रुटि न हो
जनमना पूरी तरह से ईश्वरीय हो
पर धर्म के मामले में
ईश्वरीय त्रुटि भी
नहीं की जाएगी बरदाश्त

किसी भी सूरत में धर्म ध्वजा
नहीं दी जाएगी दरकने
भले रसखान और जायसी
कृष्ण भक्ति में न्यौछावर कर दें
अपना सर्वस्व
या बनारस के किसी घाट पर
बजाते रहे बिस्मिल्लाह
अनवरत बाँसुरी अपनी
श्रीराम की किसी चौपाई पर
या फिर गाते रहे मोहम्मद रफ़ी
बेहिसाब भजन
‘मन तड़फत हरि दर्शन को आज’

एकजुट विद्यार्थियों ने
इस तथ्य को समझा है
चंदन मस्तक पर लगाए
विद्या मंदिर के प्रांगण में मोर्चा सम्भाला है
धर्म को
किसी भी सूरत में
आज बचाना है
फ़िक्र को घृणा के स्तर तक ले जाना है
फ़िरोज़ खान को शम्बूक बनाना है…

अमित पमासी
पेशे से प्रशासनिक अधिकारी. फिलहाल दिल्ली में कार्यरत. कविता और कहानी लेखन से जुड़ाव. हाशिये पर पड़े अनदेखे समाज के लेखन में विशेष रुचि. संपर्क कर सकते हैं pamasiamit@gmail.com