प्रेमचंद का लेख ‘गालियाँ’ | ‘Gaaliyaan’, an article by Premchand
हर एक जाति का बोल-चाल का ढंग उसकी नैतिक स्थिति का पता देता है, अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो हिन्दुस्तान सारी दुनिया की तमाम जातियों में सबसे नीचे नज़र आएगा। बोल चाल की गम्भीरता और सुथरापन जाति की महानता और उसकी मैतिक पवित्रता को व्यक्त करती है और बदज़बानी नैतिक अंधकार और जाति के पतन का पक्का प्रमाण है। जितने गंदे शब्द हमारी ज़बान से निकलते हैं शायद ही किसी सभ्य जाति की ज़बान से निकलते हों। हमारी ज़बान से गालियाँ ऐसे धड़ल्ले से निकलती हैं कि जैसे उनका ज़बान पर आना एक ज़रूरी बात है। हम बात-बात पर गालियाँ बकते हैं और हमारी गालियाँ सारी दुनिया की गाली से निराली, घृणित और गंदी होती हैं। हमी हैं कि एक दूसरे के मुँह से माँओं, बहनों, बेटियों के बारे में गंदी से गंदी गालियाँ सुनते हैं और पैतरे बदलकर रह जाते हैं बल्कि बहुत बार हमें इसका एहसास भी नहीं होता कि हमारा कुछ अपमान हुआ है। जिन गालियों का जवाब किसी दूसरी क़ौम का आदमी तलवार और पिस्तौल से देगा उससे कई गुना घृणित और गंदी गालियाँ हम इस कान से सुनकर उस कान उड़ा देते हैं। हमारी गालियों से माँ, बहन, बीबी, भाई, कोई नहीं बचता। हम अपनी नापाक ज़बानों से इन पाक रिश्तों को नापाक करते रहते हैं।
यों तो गालियाँ बकना हमारा सिंगार है मगर ख़ासतौर पर ज़बर्दस्त ग़ुस्से की हालत में हमारी ज़बान के पर लग जाते हैं। ग़ुस्से की घटा सर पर मंडलायी और मुँह से गालियाँ मूसलाधार मेह की तरह बरसने लगीं। अपने दुश्मन या विरोधी को दूर से खड़े खरी-खोटी सुना रहे हैं, आस्तीनें चढ़ाते हैं, पैतरे बदलते हैं, आंखें लालपीली करते हैं और सारा जोश चंद नापाक गालियों पर ख़त्म हो जाता है। विरोधी की सत्तर पुश्तों को ज़बान की गंदगी से लथपथ कर देते हैं। उसी तरह विरोधी भी दूर ही से खड़ा हमारी गालियों का तुर्की बतुर्की जवाब दे रहा है। इसी तरह घंटों तक गाली-गलौच के बाद हम धीमे पड़ जाते हैं और हमारा ग़ुस्सा पानी हो जाता है। इससे बढ़कर हमारे जातीय कमीनेपन और नामर्दी का सुबूत नहीं मिल सकता कि जिन गालियों को सुनकर हमारे ख़ून में जोश आ जाना चाहिए उन गालियों को हम दूध की तरह पी जाते हैं। और फिर अकड़कर चलते हैं कि जैसे हमारे ऊपर फूलों की वर्षा हुई है। यह भी जातीय पतन की देन है। जातीय पतन दिलों की इज़्ज़त और स्वाभिमान की चेतना मिटाकर लोगों को बेग़ैरत और बेशर्म बना देती है। जब अनुभूति की शक्ति मिट गई तो ख़ून में जोश कहाँ से आए। जो कुछ थोड़ा-बहुत बासी कढ़ी का-सा उबाल आता है उसका जोर ज़बान से कुछ थोड़े से गंदे शब्द निकाल देने पर ही ख़त्म हो जाता है।
ग़ुस्से की हालत में ज़बान की यह रवानी औरतों में ज़्यादा रंग दिखाती है। दो हिन्दुस्तानी औरतों की तू-तू मैं-मैं देखिए और फिर सोचिए कि जो लोग हमको अर्ध-बर्बर कहते हैं वे किस हद तक ठीक कहते हैं। कुंजड़े, खटिक, भठियारे यह सब जातियां ज़बानी गंदगी के लिए (क्या नैतिक गंदगी नहीं?) ख़ासतौर पर मशहूर हैं। क्या-क्या गंदगियां उनकी ज़बान से निकलती हैं कि तौबा। जिन शब्दों की याद एक लज्जाशील स्त्री के गालों को लाज से लाल कर देगी, वे शब्द इन औरतों की ज़बान से बेधड़क और मोटरकार की रवानी के साथ निकलते हैं। अब्बासी और दुलरिया ज़रा पुरज़ोर लहजे में विचारों का लेन-देन कर रही हैं। अब्बासी दुलरिया के बेटे को चबा जाती है। दुलरिया उसके शौहर को कच्चा खा जाती है। तब अब्बासी उसके दामाद को निगल लेती है। इसके जवाब में दुलरिया उसके दामाद को देवी की भेट चढ़ा देती है। अब्बासी झुंझलाकर दुलारिया के बूढ़े दादा की लंबी दाढ़ी को जलाकर ख़ाक कर देती है क्योंकि इस ग़रीब के बदन में अब हड्डियों को छोड़कर गोश्त का नाम भी नहीं रहा वर्ना शायद उसे भी निगल जाती। दुलरिया जामे से बाहर होकर अब्बासी के सातों पुश्त के मुँह पर तारकोल लपेट देती है। बदक़िस्मती से यह रवानी अधिकांश श्रेणियों की औरतों में कमोबेश पायी जाती है, और यह गालियाँ उन गंदी नापाक गालियों के मुक़ाबले में कुछ भी नहीं हैं जो हम आए दिन बाज़ारों और गलियों में सुना करते हैं।
गालियों से हमें कुछ प्रेम-सा हो गया है। गालियाँ बकने और सुनने से हमारा जी ही नहीं भरता। साफ़-सुथरा मज़ाक हमारे यहाँ क़रीब-क़रीब ग़ायब है। मज़ाक जो कुछ है वह गाली-गलौज पर ख़त्म हो जाता है। हमने गालियाँ देने और सुनने के लिए रिश्ते मुकर्रर कर लिए हैं। बीवी का भाई अपने बहनोई और बहनोई के दोस्त और उन दोस्तों के परिचितों और टोले-मुहल्ले के हर आदमी के लिए यकसां तौर पर फोहश मज़ाक का निशाना है। जो होता है उसे अपनी हैसियत के हिसाब से गालियाँ देता है। उसकी बहनें और उसके घर की बड़ी-बूढ़ियाँ एक भी इस भेड़ियाधसान हमले से बेदाग़ नहीं रहने पाती। इस ग़रीब को गंदी-गंदी बातें सुनाना हर आदमी अपना हक़ समझता है। उसे गंदे शब्दों से पुकारना, उसे ललचाई नज़रों से देखना हर बड़े-बूढ़े का ज़रूरी काम है। उसी तरह जब कोई आदमी अपने ससुराल जाता है तो सारा मुहल्ला उसे गालियाँ सुनाता है। जवान लोग ख़ामख़ाह उसकी बहन से ब्याह करने पर आमादा होते हैं और बूढ़े उसकी माँ से औरत-मर्द का रिश्ता मिलाते हैं और यह बेहूदा बातचीत ज़िंदादिली में दाख़िल समझी जाती है। शादियों में दूल्हे के साथ ससुराल में क़दम-क़दम पर ज़बानी और अमली मज़ाक किए जाते हैं। सालियां, सलहजें, सास सभी उसे गालियाँ देने और उसके मुँह से गालियाँ सुनने को तमन्ना रखती हैं। देवर-भौजाई की नोक-झोंक कौन नहीं जानता। भावज के साथ हर तरह की दिल्लगी जायज़ है। और वह दिल्लगी क्या है? गालियाँ। हमारे यहाँ गालियों का कुछ कम घृणित नाम दिल्लगी है।
हमारे देश में गालियाँ केवल गद्य में ही नहीं पद्य में भी दी जाती हैं। हम गालियाँ गाते हैं और वह भी ख़ुशी के मौक़े पर। अगर शोक के अवसर पर गालियाँ गायी जाएँ तो शायद उसकी यह व्याख्या की जा सके कि हम ज़ालिम आसमान और बेवफ़ा तक़दीर को कोस रहे हैं। लेकिन ख़ुशी के जलसों में गालियाँ गाना अनोखी बात है। हाँ, इन गालियों में वह शैतानियत, वह ख़ूँख़ारी और वह दिल को दुख पहुंचाने की बात नहीं होती जो ग़ुस्से की हालत में गालियों में पायी जाती है। तब भी इन गीतों का एक-एक शब्द दिलों में गंदे ख़याल और गंदी भावनाएं उभारता है। इसकी व्याख्या इसके सिवा और क्या की जा सकती है कि हमारा कामुक स्वभाव वासना उभारने वाली गालियाँ सुनकर ख़ुश होता है। बारात दरवाज़े पर आयी और गालियों में उसका स्वागत किया गया और फिर लोग उसके आतिथ्य-सत्कार में लग गए लेकिन ज्योंही खाने का वक्त आया, लोग हाथ-पांव धो-धोकर पत्तलों पर कढ़ी-भात खाने बैठे कि चारों तरफ़ से गालियों की बौछार होने लगी और गालियाँ भी ऐसी-वैसी नहीं, पंचमेल, कि शैतान सुने तो जहन्नुम से निकल भागे। लोग सपड़-सपड़ भात रखा रहे हैं, ढोल-मजीरे बज रहे हैं, वाह-वाह मची है और गालियाँ गायी जा रही हैं गोया पेट भरने के लिए भात के अलावा गालियाँ खाना भी ज़रूरी है। और है भी ऐसा ही। लोग ऐसे शौक़ से गालियाँ सुनते हैं कि शायद रामायण, महाभारत और सत्यनारायण की कथा भी न सुनी होगी। मुस्कराते हैं, मुग्ध होकर गर्दन हिलाते हैं और एक दूसरे का नाम गंदगी में लिथेड़े जाने के लिए पेश करते हैं। जिन महाशयों के नाम इस तरह पेश होते हैं वे इसे अपना सौभाग्य समझते हैं। और दावत ख़त्म होने के बाद कितने ही ऐसे लोग बच रहते हैं जिनके दिल में गालियाँ खाने की हवस बाक़ी रहती है। ख़ुशनसीब है वह आदमी जो इस वक़्त गालियाँ खाता है। सारी बिरादरी की आंखें उसकी तरफ़ उठती हैं। बावजूद इस आदर-सम्मान के वह ग़रीब बड़े विनयपूर्वक गर्दन झुकाए हुए है। कहीं-कहीं घर की औरतें यह फ़र्ज़ अदा करती हैं लेकिन ज़्यादातर जगहों में डोमनियां यह पाक रस्म अदा करने के लिए बुलायी जाती हैं। नहीं मालूम ये गीत किसने बनाए हैं। किन्हीं-किन्हीं गीतों में शायरी का रंग पाया जाता है। क्या अजब है, किसी रौशन तबीयत के आदमी ने इसी रंग में अपने फन का कमाल दिखाया हो। इस गाने के लिए गानेवालियों को इनाम देना पड़ता है। दुनिया में हिन्दुओं के सिवा और कौन ऐसी जाति है जो गालियाँ खाए और गाँठ से रुपया ख़र्च करके, इस मैदान में कायस्थ लोग सभी फिरकों से बाज़ी ले गए हैं। उनके यहां बहुत ज़माना नहीं गुज़रा कि महफ़िलों में गालियाँ बक-बककर इल्मी लियाक़त दिखायी जाती थी। दूसरी जातियाँ शास्त्रार्थ और इल्मी बहसें करती हैं और कायस्थ हज़रात गंदी गालियाँ बकने में अपना पांडित्य दिखाते हैं। क्या उल्टी अक़्ल है। शुक्र है कि यह रिवाज अब कम होता जाता है वर्ना गांव में किसी लड़के या लड़की की शादी ठहरी और गांव भर के नौजवान और होनहार लड़के गालियों की ग़ज़लें याद करने लगते थे। हफ़्तों और महीनों तक गालियों को रटने के अलावा उन्हें और कोई काम नहीं था। घर के बड़े-बूढ़े शाम को दफ़्तर और कचहरी से लौटते तो लड़कों से यह गंदी ग़ज़लें सबक की तरह सुनते और लबोलहजा दुरुस्त करते। जब बच्चों को गालियाँ माँ के दूध के साथ पिलायी जाएं तो नैतिक शक्ति क्योंकर आ सकती है।
ग़ुस्से में हम गाली बकें, दिल्लगी में हम गाली बकें, गालियाँ बककर लियाक़त का ज़ोर हम दिखाएं, गीत में गाली हम गाएँ- ज़िन्दगी का कोई काम इससे ख़ाली नहीं, यहां तक कि धार्मिक मामलों में भी हमारे यहां गाली बकने की ज़रूरत है। दूसरे सूबों का हमें तज़ुर्बा नहीं मगर संयुक्त प्रांत के कुछ हिस्सों में दीवाली के दो दिन बाद दूज के रोज़ गाली बकने वाली पूजा होती है। सारे गांव या मुहल्ले की औरतें नहा-धोकर जमा होती हैं, ज़मीन पर गोबर का एक पुतला बनाया जाता है, इस पुतले के इर्द-गिर्द औरतें बेठती हैं और कुछ पान-फूल चढ़ाने के बाद गाली बकना शुरू कर देती हैं। यह त्योहार इसीलिए बनाया गया है। आज के दिन हर औरत का फ़र्ज़ है कि वह अपने प्यारों को गालियाँ दे। जो आज के दिन गालियों से बच जाएगा उसे साल भर के अंदर ज़रूर यमराज घसीट ले जाएंगे। गोया यमराज से बचने के लिए गालियों की यह मोटी दीवार उठायी गई है । हमने काल से लड़ने के लिए कैसा हथियार निकाला! कहीं-कहीं यह रिवाज है कि दूज के दिन बजाय अपने प्यारों के दुश्मनों को गालियाँ दी जाती हैं और गोबर का पुतला फ़र्ज़ी दुश्मन समझा जाता है। दुश्मन को ख़ूब जी भर कोसने के बाद औरतें इस पुतले की छाती पर ईंट का एक टुकड़ा रख देती हैं और फिर उसे मूसल से कटना शुरू करती हैं। इस तरह दुश्मन का निशान गोया हस्ती के सफ़े से मिटा दिया जाता है। गालियों से केवल धर्म ख़ाली था, वह कसर भी पूरी हो गई।
हमारी रुचि इतनी विकृत हो गई है कि हममें से कितने ही शौक़ीन, रंगीन तबियत के लोग ऐसे निकलेंगे जो सुंदरियों के मुँह से गालियाँ सुनना सबसे बड़ा सौभाग्य समझते हैं। बदज़बानी भी गोया हसीनों के नखरे में दाख़िल है। प्रेमीजनों का यह संप्रदाय उस सुंदरी को हरगिज़ प्रेमिका न कहेगा जिसकी ज़बान में शोखी और तेजी नहीं। ज़बान का शोख होना माशूकियत का सबसे ज़रूरी जुज समझा जाता है। मगर अफ़सोस कि ज़बान की शोख़ी का मतलब कुछ और ही ख़याल किया जाता है। अगर माशूक़ दिल्लगीबाज़ हाज़िरजवाब हो तब तो गोया चार चांद लग गए। मगर हमारे यहां ज़बान की शोखी गाली बकने का दूसरा नाम है। मियां मजनूँ लैला से हुस्न का जकात तलब करते हैं। लैला तेवर बदलकर गाली दे बैठती है। मियां मजनूं ज़रा और सरगर्म होते हैं तो लैला उनकी मैयत देखने की तमन्ना ज़ाहिर करने लगती है। इस गाली-गलौच का शुमार माशूक़ाना शोख़ी में दाख़िल है। जिस हालत में कि ज़बान से सच्चाई और आत्मीयता में डूबे हुए शब्द निकलने चाहिए उस हालत में हमारे यहां गाली-गलौज होने लगता है, और अक्सर निहायत गंदा, फोहश। मगर हमारे स्वर्ग-जैसे देश में ऐसे लोग भी हैं जिन्हें इन गालियों में मुहब्बत की दुगनी तेज़ शराब का मज़ा आता है और जिनकी महफ़िलें इस ज़बानी तेज़ी के बग़ैर सूनी और बेरोनक़ रहती है। हमारी तहज़ीब का ढंग ही निराला है। इसी नैतिक पतन ने हिन्दुस्तान को आज ऐसी बेग़ैरत और बेशर्म क़ौम बना रक्खा है।
विलायत में बिलिंग्सगेट नाम का एक बाज़ार है। वहां की बदज़बानी सारे इंगलिस्तान में मशहूर है और किताबों में उसकी मिसाल दी जाती है, मगर हमारे हिन्दुस्तान की मामूली बोलचाल के आगे बिलिंग्सगेट के मल्लाह भी शर्म से पानी-पानी हो जाएंगे।
गाली हमारा जातीय स्वभाव हो गई है। किसी इक्के पर बैठ जाइए और सुनिए कि इक्केवान अपने घोड़े को कैसी गालियाँ देता है ऐसी गंदी कि जी मतलाने लगे। वह ग़रीब घोड़ा और उसकी नेक माँ और बुज़ुर्ग बाप और नालायक दादा, सब इस नेकबख़्त औलाद की बदौलत गालियाँ पाते हैं। हिन्दुस्तान ही तो है, यहां के जानवरों को भी गालियों से लगाव है। बैलगाड़ी वाला भी अपने बैलों को ऐसी फ़र्माइशी गालियाँ देता है। और तो था ही, सरकार बहादुर ने आजकल गालियाँ बकने के लिए एक महकमा क़ायम कर रक्खा है। इस महकमे में शरीफ़ज़ादे और रईसज़ादे लिए जाते है, उन्हें अच्छी-अच्छी तनख़्वाह दी जाती हैं और रिआया के अमन-चैन की ज़िम्मेदारी उन पर रक्खी जाती है। इस महकमे के लोग गालियों से बात करते हैं। उनके मुँह में जो बात निकलती है, गंदी, घिनौनी। ये लोग गालियाँ बकना हुकूमत की निशानी और अपने ओहदे की शान समझते हैं। यह भी हमारी टेढ़ी अक्ल की एक मिसाल है कि हम गाली बकने को अमीरी की शान समझते हैं। और देशों में ज़बान का सुथरापन और मिठास, चेहरे को गम्भीरता, शराफ़त और अमीरी के अंग समझे जाते हैं और हिन्दुस्तान में ज़बान की गंदगी और चेहरे का झल्लापन हुकूमत का जुज ख़याल किया जाता है। देखिए मोटे जमींदार साहब अपने असामी को कैसी गालियाँ देते हैं। जनाब तहसीलदार साहब अपने बावर्ची को कैसी खरी-खोटी सुना रहे हैं और सेठ जी अपने कहार पर किन गंदे शब्दों में गरम होते हैं, ग़ुस्से से नहीं सिर्फ़ अपनी हुकूमत की शान जताने के लिए। गाली बकना हमारे यहां रईसी और शराफ़त में दाख़िल है। वाह रे हम।
इन फुटकर गालियों से तबियत भरती न देखकर हमारे बुज़ुर्गों ने होली नाम का एक त्योहार निकाला कि एक हफ़्ते तक हर ख़ास व आम ख़ूब दिल खोलकर गालियाँ देते हैं। यह त्योहार हमारी ज़िंदादिली का त्योहार है। होली के दिनों में हमारी तबियतें ख़ूब उभार पर होती हैं और हफ़्ते भर तक ज़बानी गंदगी का एक ग़ुबार-सा हमारे दिल व दिमाग़ पर छाया रहता है। जिसने होली के दिन दो-चार कबीर न गाये और दो-चार दर्ज़न गंदी बातें ज़बान से न निकालीं वह भी कहेगा कि हम आदमी हैं। ज़िन्दगी तो ज़िंदादिली का नाम है। लखनऊ में एक ज़िंदादिली अख़बार है। वह भी होली में मस्त हो जाता है और मोटे-मोटे अक्षरों में पुकारता है-
आई होली आई होली, हमने अपनी धोती खोली
यह इस ज़िंदादिल अख़बार की ज़िंदादिली है। वह सभ्य और सुसंस्कृत रुचि का समर्थक समझा जाता है। लेकिन जिस देश में गालियों का ऐसा रिवाज हो वहां इसी का सुथरे मज़ाक में शुमार है। कुछ हिन्दी अख़बारों की ज़िंदादिली उन दिनों अथाह हो जाती है। निरंतर कबीरें छपती हैं और अधिकांश कबीरें शब्दों के अलंकार के पर्दे में गालियों से भरी हुई होती हैं। अगर किसी दूसरी क़ौम का आदमी इन दो हफ़्तों के हिन्दी अख़बार उठाकर देखे तो शायद दुबारा उनकी सूरत देखने का नाम न लेगा। हमारे क़ौमी अख़बारों की यह हालत हो जाती है।
तकिया कलाम के तौर पर भी गालियाँ बकने का रिवाज है और इस मर्ज़ में ज़्यादातर नीम-पढ़े लोग गिरफ़्तार पाए जाते हैं। ये लोग कोई एक गाली चुन लेते हैं और बातचीत के दौरान में उसे इस्तेमाल करना शुरू करते हैं, यहां तक कि वह उनका तकिया कलाम हो जाती है और बहुत बार उनके मुँह से अनायास निकल पड़ती है। यह निहायत शर्मनाक आदत है। इससे नैतिक दुर्बलता का पता चलता है और बातचीत की गम्भीरता बिल्कुल धूल में मिल जाती है। जिन लोगों को ऐसी आदत पड़ गई हो उन्हें तबियत पर ज़ोर डालकर ज़बान में सफ़ाई पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए।
क़िस्सा कोताह, हम चाहे किसी और बात में शेर न हों, बदज़बानी में हम बेजोड़ हैं। कोई क़ौम इस मैदान में हमको नीचा नहीं दिखा सकती। यह हम मानते हैं कि हम में से कितने ही ऐसे लोग हैं जिनकी ज़बान की पाकीज़गी पर कोई एतराज़ नहीं किया जा सकता मगर क़ौमी हैसियत से हम इस ज़बर्दस्त कमज़ोरी का शिकार हो रहे हैं। क़ौम की उन्नति या अवनति थोड़े से चुने हुए लोगों के निजी गुणों पर निर्भर नहीं हो सकती।
सच तो यह है कि अभी तक हमारे मार्गदर्शकों ने इस महामारी को जड़ से खोदने की सरगर्म कोशिश नहीं की, शिक्षा की मंदगति पर इसके सुधार को छोड़ दिया और जनसाधारण की शिक्षा जैसी कुछ उन्नति कर रही है वह सूरज की तरह रौशन है। इस बात को दुहराने की ज़रूरत नहीं कि गालियों का असर हमारे आचरण पर बहुत ख़राब पड़ता है। गालियाँ हमारी बुरी भावनाओं को उभारती हैं और स्वाभिमान व लाज-संकोच की चेतना को दिलों से कम करती हैं जो हमको दूसरी क़ौमों की निगाहों में ऊंचा उठाने के लिए ज़रूरी है।
[उर्दू लेख। उर्दू मासिक पत्रिका ‘ज़माना’, दिसंबर, 1909 में प्रकाशित। ‘मजामीन-ए-प्रेमचंद’ में संकलित। हिन्दी रूप ‘विविध प्रसंग’ भाग-1 में संकलित।]
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