बेमौसम की तरह सिर पर गठरी लिए
चली आती है गाँव में गुंवारणी
जैसे बेमौसम आती हैं आँधियाँ
जैसे बेमौसम गिरती है बर्फ़
जैसे बेमौसम होती है बारिश
जैसे बेमौसम शरमा जाती है औरतें

गाँव की गली-गली, घर-घर के आगे
घुम रही होती है जब गुंवारणी
यह कहती हुई कि-
‘चुड़ी, मिणियां, मेहंदी ले लो
ले लो कांच-कांगसी बाई सा!’
तो उस वक़्त लड़कियाँ दौड़कर जाती हैं
घर की बाड़, दीवार, खिड़की की ओर
और औरतें खड़ी होकर चौक पर
घर के भीतर आने का करती हैं उसे हाथों से इशारा

गुंवारणी घर में आकर
गठरी उतारती हुई
बैठ जाती है चौक पर
फिर जल्दी-जल्दी खोलती है गठरी की गाँठें
जैसे स्कूल से घर आयी लड़की खोलती है रिबन

आस-पड़ोस की औरतें व लड़कियाँ
दौड़ी आती हैं गुंवारणी के पास
चारों ओर एक घेरा डालकर
देखती है ध्यान से एक-एक वस्तु
लड़कियाँ ख़रीदती हैं
रबड़, बिंदिया और मेहंदी
बहुएँ ख़रीदती हैं
अंतर्वस्त्र, कांच-कांगसी, क्रीम
और सबसे बुज़ुर्ग महिलाएँ
पोतों-पोतियों के लिए
काजल की डिबिया ख़रीदती हुई हो जाती हैं हरी

आख़िरकार वस्तुओं का होता है मूल्य
मूल्य को लेकर खींचातानी
मुट्ठियों में भींचे पैसे निकालकर
सब की सब कर देती हैं
हँसती हुई गुंवारणी का हिसाब-किताब

ओढ़ना सिर पर लेती हुई गुंवारणी
बातों-बातों में जचाती है
गठरी में सलीक़े से वस्तुएँ
और देती है गाँठें
जैसे रंगीन मौसम को गाँठों के साथ सिमटा जा रहा हो
और गठरी सिर पर रख दूसरी गली की ओर चल देती है

ज़रा सोचो जिस गाँव में गुंवारणियाँ नहीं आती हैं,
उस गाँव की खेजड़ियों के पत्तों पर
कहाँ ठहरती है क्षणभर के लिए ओस की बूँदें।

संदीप निर्भय
गाँव- पूनरासर, बीकानेर (राजस्थान) | प्रकाशन- हम लोग (राजस्थान पत्रिका), कादम्बिनी, हस्ताक्षर वेब पत्रिका, राष्ट्रीय मयूर, अमर उजाला, भारत मंथन, प्रभात केसरी, लीलटांस, राजस्थली, बीणजारो, दैनिक युगपक्ष आदि पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी व राजस्थानी कविताएँ प्रकाशित। हाल ही में बोधि प्रकाशन जयपुर से 'धोरे पर खड़ी साँवली लड़की' कविता संग्रह आया है।