4 जनवरी, 1928
प्रिय जवाहरलाल,
मेरा ख्याल है, तुम्हें मुझसे इतना अधिक प्रेम है कि मैं जो कुछ लिखने जा रहा हूँ उसका तुम बुरा नहीं मानोगे। मुझे तो तुमसे इतना अधिक प्रेम है कि जब मुझे लिखने की आवश्यकता प्रतीत हो तब मैं अपनी कलम को रोक नहीं सकता।
तुम बहुत ही तेज जा रहे हो। तुम्हें सोचने और परिस्थिति के अनुकूल बनने के लिए समय लेना चाहिए था। तुमने जो प्रस्ताव तैयार किये और पास कराये उनमें अधिकांश के लिए एक साल ठहरा जा सकता था। “गणतन्त्री सेना” (रिपब्लिकन-आर्मी) में तुम्हारा कूद पड़ना जल्दबाजी का कदम था। परन्तु मुझे तुम्हारे कामों की इतनी चिन्ता नहीं, जितनी तुम्हारे शरारतियों और हुल्लड़बाजों को प्रोत्साहन देने की है। पता नहीं, तुम अब भी विशुद्ध अहिंसा में विश्वास रखते हो या नहीं। परन्तु तुमने अपने विचार बदल दिये हों तो भी तुम यह नहीं सोच सकते कि अनधिकृत और अनियन्त्रित हिंसा से देश का उद्धार होने वाला है। यदि अपने यूरोपीय अनुभवों के प्रकाश में देश के ध्यानपूर्वक अवलोकन से तुम्हें विश्वास हो गया हो कि प्रचलित तौर-तरीके गलत हैं तो बेशक अपने ही विचारों पर अमल करो, किन्तु कृपा करके कोई अनुशासनबद्ध दल बना लो । कानपुर का अनुभव तुम्हें मालूम है। प्रत्येक संग्राम में ऐसे मनुष्यों की टोलियाँ चाहिए जो अनुशासन मानें। तुम अपने अस्त्रों के बारे में लापरवाह होकर इस तत्व की उपेक्षा कर रहे हो।
अब तुम राष्ट्रीय महासभा के कार्यवाह मन्त्री हो। ऐसी सूरत में मैं तुम्हें सलाह दे सकता हूँ कि तुम्हारा कर्तव्य है कि केन्द्रीय प्रस्ताव अर्थात् एकता पर और साइमन कमीशन के बहिष्कार के महत्वपूर्ण किन्तु गौण प्रस्ताव पर अपनी सारी शक्ति लगा दो। एकता के प्रस्ताव के लिए संगठन करने और समझाने बुझाने के तुम्हारे समस्त बड़े गुणों के उपयोग की जरूरत है। मेरे पास अपनी बातों का विस्तार करने के लिए समय नहीं है, परन्तु बुद्धिमान के लिए इशारा काफी होना चाहिए। आशा है, कमला का स्वास्थ्य यूरोप की तरह ही अच्छा होगा।
सप्रेम तुम्हारा,
बापू