दादी सास को गुज़रे महीने-भर से ऊपर हो गया था… वो‌ बात अलग थी कि लॉकडाउन में फँसे होने के कारण इतने दिनों बाद मैं ससुराल आ पायी थी, पति अभी भी दूसरे देश में फँसे थे। जैसे-जैसे कार गाँव की ओर बढ़ती जा रही थी, मुझे सारी पुरानी बातें एक-एक करके याद आती जा रही थीं।

“सिलेण्डर ख़त्म हो गया, जाओ अपनी अम्मा से भरवा‌ लाओ… दिन-भर पड़े-पड़े ठूँसती हैं, फिर गैस पे गैस छोड़ती हैं, अइसा भभका पूरे घर में… उंहू!”

मेरी सास मुँह में पल्लू दबाकर अपनी सास, यानी मेरी दादी सास के लिए ऐसी निर्लज्ज‌ बातें अपने पति से करते हुए मुँह बनातीं तो मेरे लिए वहाँ बैठना मुश्किल हो जाता! कभी मेरे हाथ में आलू की चाट पकड़ाकर कहतीं, “दे आओ पहले वहाँ… बुढ़िया बड़ी चटोरी है, सूँघ लेगी क्या बना।”

कभी कहतीं, “क्यों बहू… तत्काल में ऊपर का टिकट नहीं कटता? एक अपनी सास का कटवा देते, फ़ुर्सत मिलती।”

ये सब बातें वो इतनी तेज़ आवाज़ में कहती थीं कि अपने कमरे में बैठीं, एक कॉपी में राम-राम लिखती हुईं दादी, बड़े आराम से सब सुनती रहती थीं। वो भी कोई सीधी-सादी नहीं थीं, मुझे अपने पास खींचकर कहती थीं, “चुड़ैल है तेरी सास, चुड़ैल… जो गाली मुझको देती है, तू सब सीख ले.. जब वो मरने वाली हो उसको वही‌-वही गाली देना।”

इन दोनों की बातें सुनकर जी में आता बैग उठाकर इसी वक़्त शहर भाग जाऊँ। ऐसी कौन-सी दुश्मनी दोनों ने पाल रखी थी कि एक-दूसरे के लिए ढंग का एक शब्द भी नहीं निकलता था। तीज-त्योहार गाँव में मनाना मुश्किल था— पूजा बाद में होती थी, लड़ाई पहले शुरू हो जाती थी।

“पाँच ही दिए घी के रखना… ग्यारह तेल के चासना, हर साल भूल जाती है, फूहड़ कहीं की।” दादी ऊँची आवाज़ में बतातीं तो मेरी सास उससे भी ऊँची आवाज़ में जवाब देतीं, “हाँ और क्या? ग्यारह दिए घी के चास दिए जाएँगे तो बुढ़िया के हलुए का घी नहीं ख़त्म हो जाएगा? …ग्यारह दिए लगेंगे घी के!”

फिर शुरू होता आरोप-प्रत्यारोप का दौर… होली, दीवाली, दशहरा सब ऐसे ही मनता। सबसे बड़ी बात थी कि इन दोनों के बीच कोई सुलह भी नहीं कराता था। जब कभी तलवारें खिंचने की नौबत आयी तो मैं भागकर अपने ससुर के पास जाती थी, “चलिए ना पापा, देखिए… माँ और दादी में थोड़ा ज़्यादा हो गया है।”

वो बड़े आराम से अख़बार पढ़ते हुए कहते, “अरे हटाओ! कौन पड़े उनके बीच में… तुम परेशान ना हो बहू, इन दोनों का रिश्ता ही अलग है, ये प्यार है इनका… हम तुम इनका गणित ना समझ पाएँगे।”

मैं हैरत में पड़ी हुई वापस आ जाती लेकिन दूर से आती हुई कुछ आवाज़ें— “भाग यहाँ से, लड़ाका कहीं की”, “हाँ, भाग रहे हैं, मरते समय भी आवाज़ ना देना”… मुझे चिन्तित करती रहती थीं… कैसे काटे इन्होंने साथ में इतने साल?!

आज मन में सारी बातें घुमड़ रही थीं। दादी सास की हालत के बारे में कल्पना करती तो सिहर जाती.. जाते वक़्त भी माँ ने उनसे ऐसी ही दिल दुखाने वाली बातें ही की होंगी! मन में दुःख भी था, आक्रोश भी… अब तो टिकट कट गया दादी का, ख़ुश ही होंगी माँ!

घर में घुसते ही सामने पापा बैठे दिखे। मैंने धीरे से कहा, “घर सूना हो गया पापा।”

वो मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, “नब्बे साल जी लीं अम्मा… तकलीफ़ में थीं, ख़ुद भी जाना चाह रही थीं, जैसी प्रभु इच्छा।”

बोलते हुए उनके हाथ काँपे, “लेकिन ये बात उस पगलिया को कौन समझाए, देखो अन्दर जाकर।”

आँखों में आँसू भरे हुए उन्होंने दादी के कमरे की ओर इशारा किया। मुझे समझ ही नहीं आया कि अब उस कमरे में किसको देखने के लिए मुझे कह रहे हैं… असमंजस में उस कमरे की ओर क़दम बढ़ाते हुए मैं दरवाज़े पर ही ठिठक गई; दादी की खटिया पर सास बैठी थीं, एक पल को लगा दादी ही वहाँ विराजमान थीं! वही नीली सूती साड़ी, वही बाल लपेटकर कंघा फँसाकर बनाया गया छोटा-सा जूड़ा और उन्हीं की तरह माँ भी एक कॉपी में अनवरत राम-राम लिखती जा रही थीं…

“माँ…” मैंने धीरे से कहा और पैर छुए।

वो मुझे एक नज़र देखकर फिर लिखने में जुट गईं।

“अम्मा काम दे गईं हैं, पूरा कर लें.. बहुत चिल्लाएगी नहीं तो।”

मैं उनकी ये हालत देखकर सन्नाटे में चली गई थी। क्या… कह क्या रही थीं ये? कहाँ चिल्लाएँगी अम्मा इन पर?

मैंने धीरे से पूछा, “दादी कैसे चिल्लाएँगी माँ? वो तो अब अपने राम जी के पास चली गई हैं ना..”

माँ ने चश्मा उतारकर अपनी गोद में रखा, मुझे इशारे से अपने पास बुलाकर मेरे कान में फुसफुसायीं, “हाँ तो… बुलाती रहती है ना हमें भी, जल्दी जाएँगे, तब तक पूरा लिख लें।”

मैं हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई थी! पीछे दरवाज़े पर पापा भी भरी आँखें लिए खड़े थे… वो सही कह रहे थे, इन दोनों का रिश्ता अलग था, इनके रिश्ते का गणित हम सबकी समझ से परे था!