महिलाओं को मालूम है कि जिस तरह हर सफल पुरुष के पीछे कोई महिला होती है, उसी तरह हर असफल महिला के पीछे भी कोई-न-कोई पुरुष होता है।
आप भी माने या न मानें, स्त्री-स्वातंत्र्य या महिला-मुक्ति का आंदोलन भी, जो माकूल स्पीड नहीं पकड़ पा रहा, उसके पीछे भी यही कारण है। इसे यों समझिए कि अपने हिंदुस्तान की जनसंख्या के हिसाब से, बेहिसाब तादात में महिलाएँ, सामाजिक-राजनीतिक विकास की गाड़ी पकड़ने को चुस्त-दुरुस्त तैयार है। इंजन ने सीटी भी मार दी। महिलाएँ हचककर फुटबोर्ड पर लटक भी लीं, लेकिन, चक्का जाम! भई, यह तो वही बात हुई कि इंडियन एअरलाइंस के आसमान से टूटे तो भारतीय रेलवे के खजूर में अटके। गाड़ी थी कि न टस, न मस।
पड़ताल हुई तो पता चला कि पिछले पहियों के नट-बोल्ट इतने ख़स्ताहाल हैं कि ये अगलों को खिसकने ही नहीं दे रहे।
यहाँ हम इन पाठकों का परिचय इन पिछले पहियों से करा दें। ये पिछले पहिए, पुरुष हैं। पाठकों को यह भी ज्ञात होगा कि स्त्री और पुरुष को हमने समाज और परिवार की गाड़ी के दो पहिए माना है। अब एक पहिया धुआँधार चालू हो और दूसरा पूरी तरह पंचर, तो कैसे चलेगा भई! बस इसलिए हम जागरूक और प्रबुद्ध महिलाओं ने सोचा, चलो, पहले अपनी भारतीय रेलगाड़ी के इन जाम चक्कों की मरम्मती और दुरुस्ती पर ध्यान दिया जाए। इनके बिगड़ैल पूर्वाग्रह के स्पीड-ब्रेकर सपाट किए जाएँ, तभी अपनी गाड़ी सरपट दौड़ेगी। वरना यह क्या कि हम तो प्रगति और विकास की नसेनी पर सोत्साह फेंटा कसकर चड़ने को तैयार, लेकिन यह मुआ (सॉरी पुरुष) अभी बेड टी के इंतज़ार में सोया पड़ा है। इसका क्या ठिकाना, नींद के झोंके में एक पाँव फटकारेगा तो हमारी लगायी सीढ़ी, धड़ाम से चारों ख़ाने नीचे चित्त, वही हर असफल महिला के पीछे एक पुरुष।
इसलिए कई महिला संगठनों ने अनेक शिखर-वार्ताओं के बाद यह निर्णय लिया कि नहीं, हमें काउंटर-पार्ट, बेचारे पुरुष को यूँ ही सोता नहीं छोड़ना है। अर्थात उसे जगाकर ही छोड़ना है, क्योंकि ‘उठ जाग मुसाफ़िर देर भई… तुझे नहीं, मुझे तो ऑफ़िस जाना है…।’
सो, हे पति! हे पुरुष! इनमें से एक या दोनों, उठ! और अपने आप को हमारे हवाले कर दे। हमारी दूरदर्शिता और उदारता का लोहा मान… जो हमने ‘अपनी’ दशा सुधारने का काम बीचों-बीच छोड़कर, तुझे उठाने और तेरी धूल-धक्कड़ झाड़ने का टास्क हाथ में ले लिया है।
यह काम उतना आसान नहीं। इसके लिए हमें पूरी तरह समर्पित और एकजुट होकर काम करना होगा। क्योंकि महिलाओं द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से पता चला है कि आज का पुरुष अनेक प्रकार की हीनता-बोधों से ग्रस्त है। अनेक अहं, अनेक वहम, अकर्मण्यता तथा आलस्य इसके मूल कारण हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम उनकी वर्तमान, गिरी हुई दशा पर तरस खाएँ तथा उन्हें उनकी संकीर्ण विचारों की चारदीवारी से बाहर लाने की हर चंद कोशिश करें।
इसके लिए सबसे पहले तो रैलियाँ निकाली जाएँ और उनकी तख़्तियों पर उत्साहवर्धक वाक्य लिखवाएँ जाएँ। जैसे— ‘पति एक सम्मानजनक ओहदा है’ …या फिर ‘पतित्व हीनता नहीं, गौरव का प्रतीक है…’ अथवा ‘गर्व से कहो, हम पति हैं…’ आदि इत्यादि।
सर्वे से प्राप्त सूचना के अनुसार, ‘पत्नी’ और ‘परिवार’ के नाम से नर्वस होनेवाले पतियों की संख्या में भी इधर बहुत बढ़ोतरी हुई है। कुछ पति तो इसी भय के कारण ड्यूटी आवर्स के बाद भी ताश-पपलू आदि के बहाने मारकर, ऑफ़िस में ही पड़े रहते हैं। ऐसे पतियों को समझना चाहिए कि यह पलायनवाद अर्थात भगोड़ापन है। यही कारण है कि उनका पुरुष समाज अर्थात पूरा का पूरा पुरुष समाज, पलायन करते-करते आज इस दीन-हीन दशा को पहुँच गया है। हमारे देश की दुर्गति का प्रमुख कारण भी यही है।
इतिहास साक्षी है कि जब-जब पुरुष वर्ग पलायन करता रहा, तब-तब देश रसातल को जाता रहा, यानी हमेशा ही…।
फ़िलहाल देश और रसातलवाले मुद्दे को छोड़कर हम अपने मेनिफ़ेस्टो पर आते हैं जिसके अनुसार इन सामूहिक तथा एकजुट अभियानों के अतिरिक्त, पारिवारिक स्तर पर भी, हर पत्नी का फ़र्ज़ बनता है कि वह कम से कम एक अदद पुरुष अर्थात पति को स्वावलम्बी बनाने में प्राण पर से जुट जाए! मिसाल के तौर पर यदि वह किसी ज़रूरी काम में फँसी है तो निठल्ले पति द्वारा डपटकर पानी माँगे जाने पर हरगिज़ न उठे। उसे स्वयं उठकर पानी लेने की आदत डलवाएँ। साथ ही उसे स्वयं अपनी शर्ट में बटन टाँगने तथा पाजामे में नाड़ा डालने के लिए प्रेरित करें।
पत्नी को स्मरण रखना चाहिए कि ऐसे मौक़ों पर पति पहले झल्लाएगा, डपटेगा तथा पत्नी को पागलख़ाने में भर्ती करने की धमकी भी देगा। किंतु पत्नी को अपनी फ़र्ज़-अदायगी से डिगना नहीं चाहिए। उसे फ़ौरन समझ लेना है कि यह पुरुष नहीं, उसकी हीन-भावना बोल रही है।
ज़रा कल्पना कीजिए, डाकख़ाने, दवाख़ाने और टेलीफ़ोन, बिजली की लाइनों से लेकर मछली बाज़ार और भाजी-गल्ली तक, जो जगहें जागरूक महिलाओं की क्रीड़ास्थली और लीलास्थली समझी जाती हैं, वहाँ यदि पुरुष समुदाय को बलपूर्वक भेजा जाने लागे तो उनमें जागृति आएगी, दूसरे इनमें से बहुत से स्थानों की बेवजह भीड़ भी कम हो जाएगी। बेशक, बहुत से स्थान अपने साथ जुड़ा ग्लैमर खो देंगे, जैसे भाजी-गल्ली या मछली बाज़ार… किंतु पुरुषों की बेहतरी के लिए महिलाएँ यह सदमा, हँसते-हँसते बर्दाश्त कर ले जाएँगी। सिर्फ़ ज़रा सी बूझ और चतुराई से, वे पुरुषों का युगों से खोया आत्मबल उन्हें वापस दिला सकती हैं।
सूर्यबाला की कहानी 'एक स्त्री के कारनामे'