याद है तुम्हें?
तुम आते थे रोज़ सुबह
दरवाज़े की ताख पर।
कितना गाते थे तुम,
सबको जगा जाते थे तुम,
तुम्हारी प्रियतमा को रिझाने को
हर रोज़ नई जगह तलाशते थे तुम।
कितना इतराती थी प्रियतमा तुम्हारी!
हर एक चाल पर तुम्हारी।
कभी-कभी तो पूरे झुण्ड में
मेरे बरामदे में दाना चुगते थे।
मैं तुम्हें पहचान जाता था,
इतने सालों से जो था
मेरे घर में घोसला तुम्हारा।
पर अब दिखते नहीं,
कई महीनों से तुम्हारा पता नहीं
आँगन सूना है बहुत
नाराज़ सा लगता है तुम्हारे बिना
बोगनवेलिया का वो झाड़,
और हर एक कोना आँगन का
अधूरा-अधूरा सा है
उदासियाँ यूँ ना फैलाओ तुम,
ऐसा करो वापस घर आओ तुम।