‘Gaurav Bhari Kuleenta’, a poem by Shravan
उस महल में
आधी रात गये
चीख़ती है कुलीनता
शाही खाट पर
बड़े भाई के नीचे लेटकर
छोटे भाई की विधवा के मुख से
और हँसता है
सदियों का गौरव
जो प्रजा के ख़ून, हड्डी को
चूस-चूसकर अपने को अमर करता है
वही गौरव भरी कुलीनता
दिन निकलने के साथ ही
चल पड़ती है
अपने मनोरंजन के लिए
किसानों, मज़दूरों और दलितों की पीठ पर
एक लम्बी रस्सी का ब्रश लिए
अपने अतीत की महानता के
शिलालेख उकेरने।
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