इतवार का दिन था, छुट्टी का दिन सब के लिए एक सुखद अनुभूति होती है क्योंकि यही तो एक दिन ऐसा होता है जिसमें रोज़ की भागमभाग और आपाधापी से निजात मिली होती है पर यह विवशता स्त्री के साथ सदैव रहती है कि छुट्टी का दिन उसके लिए व्यस्ततम दिनों में से ही एक होता है।
गर्मी अपनी चरम पर है, चिलचिलाती धूप और चिपचिपी गर्मी जिसके आगे पंखे, कूलर और ए. सी भी नतमस्तक हो चुके थे, सुमन अपने नाम के सदृश गर्मी में भी खिली हुई मुस्कान के साथ किचन से अपने माथे पर बारम्बार निकलते हुए पसीने को अपने साड़ी के आँचल से पोंछकर मात देने की कोशिश करती हुई बाहर आती है, जहाँ घर के सभी सदस्यों ने गर्मी के आगे घुटने टेकते हुए, कूलर के सामने से न हटने का प्रण किया हुआ था। सुमन अपने दृढ़ हौसले और ज़िम्मेदारियों को ढाल बनाकर गर्मी में भी अपने सभी उत्तरदायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वहन कर रही थी।
“मम्मी आज नाश्ते में क्या बना है?” सुमन की दस वर्षीय बेटी ने उत्सुकता से पूछा।
“आज तो कचौरी और सब्जी बनी है।”
“क्या माँ? मैनें आपसे कहा था कि मुझे छुट्टी के दिन, कुछ अच्छा बनाकर क्यों नहीं खिलाती, वही बोरिंग कचौरी सब्ज़ी। अब मैं नहीं खाऊँगी।”, श्रेया ने क्रोध में कहा।
“प्लीज़ बेटा आज खा लो, कल कुछ अलग बना दूँगी। एक तो गर्मी इतनी है और अगर वही फास्ट फूड बनाती तो घर में बाकी सब नहीं खाते”, सुमन ने भारी मन से कहा।
“आप हमेशा यही कहती हैं”, बिटिया नाराज़ होकर चली गयी।
अब सुमन का मन ग्लानि से भर गया, सोचा चलूँ कुछ बना ही दूँ। तब तक पास के एक पड़ोसी आ गए, उनके घर में शादी पड़ी है, उसी का न्योता देने निकले हैं सुबह-सुबह।
“दिन चढ़े बाहर निकलना बड़ा मुश्किल होता जा रहा है, इतनी गर्मी और धूप, बाप रे बाप!”, उन्होंने गमछे से अपनी पसीना पोंछते हुए कहा।
मेहमान को ड्राइंग रूम में बिठाया गया। अब मेहमान नवाजी की बारी थी सुमन की।
“अरे तिवारी जी के लिए कुछ ठंडा ले आओ”, सार्थक रौबीले अंदाज़ में कहता है।
सुमन मेहमान की खातिरदारी में लग जाती है पर मन ही मन उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी कि श्रेया ने अब तक कुछ खाया नहीं है, और नाराज़ होकर भी बैठ गयी है।
रसोई घर भट्टी सा बन गया है। कोई झाँकने भी नहीं आता कि उसे ही शर्बत थमा कर जाऊँ श्रेया के पास। अपने मन की बेचैनी को छुपाते हुए, चेहरे पर नकली हंसी बिखेरने का प्रयत्न करते हुए वह शर्बत को मेज़ पर रखती है।
“अरे साथ में कुछ बनाकर भी लाती बहू, क्या शर्बत लाकर पटक दिया”, सुमन के ससुर ने कहा।
उसके ससुर जल निगम पर अच्छे पद पर रह चुके हैं। अब रिटायर होकर घर में ही मन लगाने की कोशिश करते हैं और बोरियत, बढ़ती उम्र, चिढ़चिढ़ेपन और कुंठा वो सुमन पर ही निकालते हैं, क्योंकि और किसी पर उनका वश नहीं चलता।
कहते हैं ना कि जो सहता है, उसे ही सुनना भी पड़ता है। सुमन ने शुरू से ही ऐसी जीवन शैली को अपनाया है जहाँ वो खुद को छोड़कर बाकी सबकी परवाह भी करती है और तवज्जो भी दूसरों को ही देती है। कष्ट सहने को अपनी नियति समझकर उसने सभी तरह के एडजस्टमेंट करने में महारत हासिल कर रखी थी।
“ठीक है पापाजी अभी लाती हूँ”, कहकर वह सकुचा सी गयी।
‘मुँह पर बोलने की क्या ज़रूरत थी, अंदर आकर धीरे से भी तो बता सकते थे ,चलो तिवारी जी भी मुझे नकारा और कामचोर औरत ही समझेंगे’, इसी उधेड़बुन में उसने पकौड़ियाँ तल कर रख ली और मौन होकर ड्राइंग रूम की तरफ बढ़ी ही थी कि देखा तिवारी जी तो गेट पर हैं, शायद वापस जा रहे हैं, ‘पर पकौड़ियाँ!’
सार्थक अंदर आया तो सुमन बोल पड़ी, “अरे वो जल्दी ही जाने वाले थे तो बता देना चाहिए था ,फालतू में इतनी गर्मी में मैं पकौड़े तो न बनाती।” उसने साहस करते हुए कहा।”
“बीरबल का पकौड़ा बना रही थी तो किसके पास इतना टाइम है, अब खुद ही खाओ आराम से।”
सुमन की आँखों से आँसू टपक रहे थे और माथे से पसीना, वो यह सोच रही थी कि मेरे पसीने या आँसू से किसी को फर्क नहीं पड़ता। एक स्त्री का जीवन सबके लिए सार्थक होते हुए भी खुद के लिए इतना निरर्थक क्यों होता है? वह खुद को महत्व क्यों नहीं दे पाती या दे सकती। सारा एडजस्टमेंट उससे ही अपेक्षित होता है। इतना बेड़ा सिर पर उठाए हुए भी वह मन में उठने वाले और चेहरे पर छा जाने वाले भावों को भी मेकअप से छुपाने में माहिर क्यों होती है। यह सब सोचते हुए सुमन बाकी बचे काम को निपटाने में लग जाती है।
रात के बाद अगली सुबह फिर वही दिनचर्या, बच्चों के टिफ़िन, सबका नाश्ता परोसते हुए खुद ऑफिस पहुँचने की चिंता में वह घुली जा रही थी। वह एक कंपनी में काम करती है क्योंकि वह अपने पति की आर्थिक रूप से मददगार बनना चाहती है और अपने पैरों पर खड़ा रहने का शौक उसे बचपन से ही है।
घर की ज़िम्मेदारियों के चलते वह अक्सर ऑफिस लेट से पहुँचती है, आत्मसम्मान और कर्तव्यनिष्ठा उसमें कूट कूट कर भरी है जो उसे हर हाल में सौ प्रतिशत देने को उद्यत करती है और ऐसा न कर पाने की स्थिति में वह आत्मग्लानि से भर उठती है।
ऑफिस में सब समय से आते हैं और उन्हें घर जाने की भी कोई जल्दी नहीं रहती पर ऐसा खुद के लिए सोच भी पाना सुमन के लिए असंभव था। सब लोग अपने लाइफ के इस फेज को भी कितना एन्जॉय करते हैं और एक मैं हूँ कि न चाहते हुए भी घड़ी की सुइयों से बंधी सी हूँ। जब भी घड़ी घर जाने का समय बताती है सुमन का मन बेचैन हो उठता है, और एक अस्थिरता सी मच जाती है उसके दिमाग में, वह उस लक्ष्मण रेखा को पार नहीं कर सकती जो उसने खुद बनाई है।
पूरा दिन बीत चुका था। सभी लोग अपने कुर्सियों से उठकर चलने की तैयारी करने लगे, तभी शुभांगी जो कि सुमन की कॉलीग है, अपने बर्थडे की ट्रीट के लिए सभी को रेस्टोरेंट चलने का आग्रह करती है। सब बहुत खुश थे पर सुमन के मन में तूफान मचा हुआ था।
वह सोच में पड़ गयी कि अब क्या करूँ, एकाध घण्टे लेट हो जाऊं तो भूचाल तो नहीं आ जाएगा घर में, फिर भी मन बदलते हुए उसने घर जाने का निर्णय लिया, ‘मैं एन्जॉय करूँ यहाँ और मेरे बच्चे वहाँ मेरा इंतज़ार करें ये ठीक नहीं।’
उसने शुभांगी को टरकाना ही बेहतर समझा। किसी तरह पैंतरेबाजी से उसने शुभांगी को मना लिया।
“मेरे सिर में दर्द है, तुम लोग मज़े करो। मैं घर जाकर थोड़ा आराम करूँगी और एक कड़क चाय पीऊंगी”, कहते हुए वो ऑटो ढूंढने लगती है। रास्ते भर वो यही सोचती है कि अगर मैं भी खुल के जी पाती तो आज शुभांगी को मना नहीं करना पड़ता, पर मुझे रोका किसने है? खुद मैनें ही तो, खुद को कोसते कोसते वह कब घर पहुँच जाती है उसे पता भी नहीं चलता।
वह जैसे ही घर मे प्रवेश करती है, उसके बच्चे इंतज़ार में बैठे रहते हैं, “मम्मी आज आपने इतनी देर क्यों कर दी, आपको हमारा बिल्कुल ख्याल नहीं है। आप सिर्फ अपना काम ही करती रहती हैं।”
बच्चों को मुँह फुलाये देखकर अब सुमन का मिजाज भी गर्म हो गया, ‘यहाँ तो मैं जल्दी आने की कोशिश में रहती हूँ पर बच्चों को क्या समझाऊँ’।
उसने अपना पर्स मेज़ पर रखा और तभी सार्थक की भारी भरकम आवाज़ से चौंक गई, “अरे आज चाय तक नहीं मिली, मैं कब से घर आकर बैठा हूँ, क्या तुम मुझसे भी अधिक काम करती हो ऑफिस में!”, सार्थक ने चिल्लाते हुए कहा।
वह बिना कुछ कहे किचन में जाकर चाय चढ़ाती है और पुराने दिनों में गुम सी हो जाती है कि कैसे उसके कॉलेज के लिए तैयार होते समय माँ की नाश्ता बनाने की स्पीड में अचानक इतना इजाफा हो जाता था-
“माँ मैं जा रही हूँ लेट हो रहा है।”
“अरे रुक जा ,खाना ज़्यादा ज़रूरी है या कॉलेज जाना और ये टिफिन भी रख ले जब भूख लगेगी तब इस टिफ़िन की कीमत पता चलेगी तुम्हें!”
“ओह माँ कॉलेज में टिफिन कौन ले जाता है, सब कैंटीन में खाते हैं।”
“जब माँ नहीं रहेगी न तब तुम्हें पता लगेगा कि मां के हाथ का खाना क्या होता है”, माँ भावनात्मक रूप से सुमन को अपनी बातों में लाने की कोशिश करते हुए बोलीं।
“क्या माँ आप भी बात-बात में जीने मरने की बात करने लगती हैं।”
चाय उबल कर गिर रही थी, तभी सार्थक पीछे से आकर सुमन की ध्यान समाधि भंग करता है, “अरे ये क्या कर रही हो, सामने ही खड़ी हो और चाय जलकर खाक हुए जा रही है। अब मैं नहीं पीऊँगा, पापा ने भी अब तक चाय नहीं पी है पर अब कोई ज़रूरत नहीं, तुम ही पियो अपनी चाय।”
अब सुमन का धैर्य जवाब दे रहा था, ‘मैं इतनी ज़िम्मेदारियाँ निभा रही हूँ, उसके बावजूद मुझे नकारा क्यों समझा जा रहा है? अगर बच्चे की स्कूल की यूनिफार्म गंदी है तो माँ की लापरवाही, खाना बेस्वाद हो तो या बच्चा बिगड़ैल हो रहा हो तो भी। एक ही पहिये पर इतना बोझ हो तो गाड़ी आगे कैसे बढ़ सकेगी।’
लेकिन जो जीवन शैली वह अपना चुकी है उससे अलग व्यवहार करने पर उसे विद्रोही और स्वार्थी ही कहा जाएगा।
‘अब तो बीज पड़ चुका है’, सुमन ने ठानते हुए कहा- ‘और उसे अनुकूल वातावरण भी मिल रहा है, अब वक़्त है ग्रो करने का!’
सुमन ने सार्थक से अपने ख़यालात, अपनी परेशानियां और दमित जीवन शैली और उससे उबरने में सबके सहयोग करने के विचार को साझा करने का मन बना लिया।