बड़े शहर से गांव लौटते मज़दूर
कभी पूरा नहीं लौटते

शहर में छोड़ कर आते हैं वो
पुराने बरतन, फटी चटाई, स्टोव
इसके साथ ही छूटे रह जाते हैं
उनके अधूरे सपने
जिनके लिए खटते हुए
दिन-रात कोल्हू की बैल की तरह
उन्होंने खर्च कर दी होती है
अपनी पूरी जवानी
बुढ़ापा आने से बहुत पहले
छूट जाते हैं उनसे उनके जिगरी दोस्त
कभी थकाऊ नहीं लगा जिनके साथ
ओवरटाइम करना रात-रात भर जगकर
उस दोस्त के पास ही छोड़ आते हैं वो
खैनी की डिबिया,
उनके ओवरटाइम का कुछ पैसा भी
मैनेजर के पास छूटा रह जाता है।

बड़े शहरों से लौटते हुए मज़दूर
कभी खाली हाथ भी नहीं लौटते

अपने साथ लाते हैं वो
शहर की जहरीली हवाएँ
फेफड़ों में भरकर
साथ लौटते हैं लेकर
चिड़चिड़ापन, नशे की लत
नींद ना लगने की बीमारी भी
नये मोबाईल, फैशनेबल कपड़ों के साथ
कुछ मज़दूर साथ ले आते हैं
माँ के लिए नई बहू,
पत्नी के लिए सौत
अपने बच्चों के लिए
नये भाई-बहन भी।

दीपक सिंह चौहान 'उन्मुक्त'
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसम्प्रेषण में स्नातकोत्तर के बाद मीडिया के क्षेत्र में कार्यरत. हिंदी साहित्य में बचपन से ही रूचि रही परंतु लिखना बीएचयू में आने के बाद से ही शुरू किया ।