निकी पुष्कर की कविता ‘घरेलु औरतें’ | ‘Gharelu Auratein’, a poem by Niki Pushkar
बड़ी आम सी होती हैं,
ये घरेलू औरतें
बड़ी आम सी होती है,
इनकी दिनचर्या
अलस्सुबह बिन अलार्म
ये जाग जाती हैं हर रोज़
नित एक से कामों से
कभी भी नहीं होती हैं बोर
इनका टाईम टेबल
इनके दिमाग़ में फ़ीड है
रसोई बनाना, बिस्तर लगाना,
कपड़े सुखाना,
बच्चों को तैयार करना
सब यंत्रवत् करती हैं
सिलसिलेवार….।
सुदूर गाँवों में
ये घरेलू औरतें
सुबह-सवेरे चली जाती हैं
दूर जंगल मे
बीनती हैं लकड़ियाँ,
ढोती हैं घास के गट्ठर
खेतों की करती हैं निराई
फ़सल की करती हैं कटाई
ये कूटती हैं ओखल
छीलती हैं बरसीम
ये घरेलू औरतें,
सदियों से यही करती आयी हैं
ये काम,
जो बन चुका इन औरतों का पर्याय
ऐसा काम,
जो किसी के विज्ञप्ति मे नहीं आता
ऐसा परिश्रम,
जिसकी इनको
दाद मिलती है, न पगार!