घास भी मुझ जैसी है

पाँव-तले बिछकर ही ज़िन्दगी की मुराद पाती है
मगर ये भीगकर किस बात की गवाही बनती है
शर्मसारी की आँच की
कि जज़्बे की हिद्दत की

घास भी मुझ जैसी है

ज़रा सर उठाने के क़ाबिल हो
तो काटने वाली मशीन
उसे मख़मल बनाने का सौदा लिए
हमवार करती रहती है
औरत को भी हमवार करने के लिए
तुम कैसे-कैसे जतन करते हो
न ज़मीं की नुमू की ख़्वाहिश मरती है
न औरत की

मेरी मानो तो वही पगडण्डी बनाने का ख़याल दुरुस्त था
जो हौसलों की शिकस्तों की आँच न सह सकें
वो पैवंद-ए-ज़मीं होकर
यूँही ज़ोर-आवरों के लिए रास्ता बनाते हैं

मगर वो पर-ए-काह हैं
घास नहीं
घास तो मुझ जैसी है!

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