Ghazal: Kailash Manhar

1

सवाल दर सवाल सिलसिलों में घिरा हूँ,
भूली हुई यादों के क़ाफ़िलों में घिरा हूँ।

घर में रहूँ तो बाहरी दुनिया से घिरा हूँ,
बाहर रहूँ तो, घर के ख़यालों में घिरा हूँ।

मैनें कहा कि बहुत घिर गया हूँ आजकल,
बोला प्रभात मैं भी मुश्किलों में घिरा हूँ।

नज़दीक रह के घिरने से, बचता रहा मगर,
बेकार बेवजह के फ़ासलों में घिरा हूँ।

घिरने से मेरा चैन खो गया तो क्या हुआ?
बेचैनियों के सोचते पलों में घिरा हूँ।

2

सोचता हूँ कि थोड़ा मर जाऊँ,
रास्ते पर कहीं बिखर जाऊँ।

वक़्त से जो मेरी लड़ाई है,
अगली पीढ़ी के नाम कर जाऊँ।

बन मुहब्बत की जोत दुश्मन के,
दिल में गहरे तलक उतर जाऊँ।

थक गया हूँ भटकते बीहड़ में,
जाऊँ आख़िर में अपने घर जाऊँ।

या कि ज़िन्दा रहूँ तो दुःखों की,
आग में तप के कुछ निखर जाऊँ।

3

सूरत-ए-हाल यही होना था,
अपने ही ख़ूँ से चेहरा धोना था।

गलना तो था ही बीज की मानिंद,
ख़ुद को धरती में अगर बोना था।

पहाड़ थे ग़मों के काँधे पर,
ज़िन्दा रहना था रोज़ ढोना था।

आरज़ू थी कि जैसे नामुमकिन,
और उसका ही सारा रोना था।

बारिशें आईं उसकी यादों की,
मुझको भीतर तलक भिगोना था।

4

अकेले में ही याद आते हैं सारे,
सुहाने वो सपने हमारे-तुम्हारे।

तुम्हें याद करते हुए छत पे लेटे,
वो करवट बदलते गिने जाना तारे।

सुबह मेरा तेरी गली का वो फेरा,
तेरा आना मिलने नदी के किनारे।

अभी तेरी यादों की मीठी हवाएँ,
मगर अश्क आँखों में हैं खारे-खारे।

हुए जा रहे हैं सभी अक्स धुँधले,
बची अब गुज़ारें इन्हीं के सहारे।

5

रोज़ अक्सर तज़ुर्बे धुनता हूँ,
रात भर ख़्वाब कोई बुनता हूँ।

तुम पढ़े पर ग़ुमान करते हो,
मैं तो देखे हुए को गुनता हूँ।

अपनी आवारग़ी की भटकन में,
दर्द-ओ-ग़म आदमी के चुनता हूँ।

स्वाद लेने को ज़िंदगी का मैं,
ख़ुद अपनी आग में ही भुनता हूँ।

लोग उस्ताद-ए-शाइरी हैं और,
मैं कि बस हर्फ़-हर्फ़ चुनता हूँ।

Books by Kailash Manhar:

 

 

कैलाश मनहर
जन्म- 2 अप्रैल, 1954 | निवासी- मनोहरपुर, जयपुर (राज.) | प्रकाशित कृतियाँ- 'कविता की सहयात्रा में', 'सूखी नदी', 'अरे भानगढ़', 'अवसाद पक्ष', 'उदास आँखों में उम्मीद', 'मुरारी महात्म्य', 'हर्फ़ दर हर्फ़' | सम्पर्क- [email protected]