दूर एक दीवार पर बैठे हैं दो कौवे,
रोज़ आना जाना है उनका वहाँ
क्योंकि वहीं एक पेड़ पर घोंसला था उनका,
वही पेड़,
जो बच गया था कटने से।
पर आज माजरा कुछ और ही है
होकर व्याकुल और स्तब्ध
दोनों ढूँढ रहे हैं वो पेड़
जो नदारद है,
और
ठीक उसी जगह
पड़ी हुई हैं कुछ लकड़ियाँ।
मैनें ग़ौर से देखा
तो दिखा
उनकी आँखों से बहता हुआ
अदृश्य अश्रु
और
चीत्कार करती हुई
मूक सम्वेदना उनकी।
कल तक वहीं था आशियाना
आज वहाँ एक दीवार खड़ी है।
पास ही रहती है एक नन्हीं गिलहरी
अब उसे नसीब नहीं गोद
विशाल वृक्षों की।
ईंटों की दीवारों पर,
दो ईंटों के बीच बची हुई जगह ही
जागीर है उसकी।
होती है जब धूप कड़ी
बरसाता है अग्नि जब सूर्य
और जब
ए.सी. की ठंडी हवा
करती है तर
मनुष्य की स्वार्थन्धता को,
उसी ए.सी. की दूसरी ओर
निकलती गर्म हवा में
तड़पने को है लाचार
छोटी गौरेया, कंक्रीट के घोंसले में,
शिकायत की बड़ी लम्बी फेहरिस्त है
इन सभी के पास सुनाने को,
पर किससे कहें,
ये प्रश्न बड़ा निर्रथक सा लगता है
क्योंकि
देख रहे हैं वो विनाश,
मानव और सम्पूर्ण मानवता का भी।
क्योंकि
कल उन्हीं के स्थान पर
खड़े होंगे मानव अनगिनत
रोते, बिलखते
दुर्दशा पर अपनी,
तरसते उसी पेड़ की छाँव को
जिसे बड़ी बेरहमी से
और स्वार्थवश
हटा दिया था
रास्ते से अपने।
वो वृक्ष बड़े,
और सघन वो वन
जिसपर अधिकार बराबर का था,
था वरदान वो कुदरत का,
रोती अब हरीतिमा है
निरीह जीवों की आहों में,
किंतु मनुष्य की कायरता ने
और उसकी
स्वार्थपरता ने
बो दिए शूल
सभी की राहों में ।

अनुपमा मिश्रा
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