सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो भाई को अछूत कह वस्त्र बचाकर भागे
तुम, जो बहिनें छोड़ बिलखती, बढ़े जा रहे आगे
रुककर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान!
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो बड़े-बड़े गद्दों पर ऊँची दुकानों में
उन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों में
तुम, जो रक्त चूस ठठरी को देते हो जल-दान!
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश
‘मरने दो बच्चे, ले आओ खींच पकड़कर केश!’
नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान!
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो पाकर शक्ति क़लम में हर लेने की प्राण
‘निःशक्तों’ की हत्या में कर सकते हो अभिमान
जिनका मत है, ‘नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान’!
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो मन्दिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल
और इधर कहते जाते हो, ‘जीवन क्या है? धूल!’
तुम, जिसकी लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान!
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, सत्ताधारी, मानवता के शव पर आसीन
जीवन के चिर-रिपु, विकास के प्रतिद्वंद्वी प्राचीन
तुम, श्मशान के देव! सुनो यह रण-भेरी की तान!
आज तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!