इस ज़माने में जिनका ज़माना है भाई
उन्हीं के ज़माने में रहते हैं हम
उन्हीं की हैं सहते, उन्हीं की हैं कहते
उन्हीं की ख़ातिर दिन-रात बहते हैं हम
ये उन्हीं का हुक्म है जो मैं कह रहा हूँ
उनके सम्मान में मैं क़लम तोड़ दूँ
ये उन्हीं का हुकुम है
सबके लिए और मेरे लिए
कि मैं हक़ छोड़ दूँ
लोग हक़ छोड़ दें पर मैं क्यों छोड़ दूँ
मैं तो हक़ की लड़ाई का हमवार हूँ
मैं बताऊँ कि मेरी कमर तोड़ दो, मेरा सिर फोड़ दो
किन्तु ये न कहो कि हक़ छोड़ दो
आपसे कह रहा हूँ अपनी तरह
अपनी दिक़्क़त को सबसे ज़िरह कर रहा हूँ
मुझको लगता है कि मैं गुनहगार हूँ
क्योंकि रहता हूँ मैं क़ैदियों की तरह
मुझको लगता है कि मेरा वतन जेल है
ये वतन छोड़कर अब कहाँ जाऊँगा
अब कहाँ जाऊँगा जब वतन जेल है
जब सभी क़ैद हैं तब कहाँ जाऊँगा
मैं तो सब क़ैदियों से यही कह रहा
आओ उनके हुक्म की उदूली करें
पर सब पूछते हैं कि वो कौन है
और कहाँ रहता है
मैं बताऊँ कि वो जल्लाद है
वो वही है जो कहता है हक़ छोड़ दो
तुम यहाँ से वहाँ तक कहीं देख लो
गाँव को देख लो और शहर देख लो
अपना घर देख लो
अपने को देख लो
कि इस हक़ की लड़ाई में तुम किस तरफ़ हो
आपसे कह रहा हूँ अब अपनी तरह
कि मैं सताए हुओं की तरफ़ हूँ
और जो भी सताए हुओं की तरफ़ है
उसको समझता हूँ कि अपनी तरफ़ है
पर उनकी तरफ़ इसके उलटी तरफ़ है
उधर उस तरफ़ आप मत जाइए
जाइए पर अकेले में मत जाइए
ऐसे जाएँगे तो आप फँस जाएँगे
आइए अब हमारी तरफ़ आइए।
आइए इस तरफ़ की सही राह है
और सही चाह है
हम कौन हैं क्या ये भी नहीं ज्ञात है
हम कमेरों की भी क्या कोई जात है
हम कमाने के खाने का परचार ले
अपना परचम लिए अपना मेला लिए
आख़िरी फ़ैसले के लिए जाएँगे
अपनी महफ़िल लिए अपना डेरा लिए
उधर उस तरफ़
ज़ालिमों की तरफ़
उनसे कहने की गर्दन झुकाओ चलो
अब गुनाहों को अपने क़बूलो चलो
दोस्तों उस घड़ी के लिए अब चलो
और अभी से चलो उस ख़ुशी के लिए
जिसके ख़ातिर लड़ाई ये छेड़ी गई
जो शुरू से अभी तक चली आ रही
और चली जाएगी अन्त से अन्त तक
हम ग़ुलामी की अन्तिम हदों तक लड़ेंगे…

विद्रोही की कविता 'औरतें'

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रमाशंकर यादव (3 दिसम्बर 1957 – 8 दिसम्बर 2015), जिन्हें विद्रोही के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय कवि और सामाजिक कार्यकर्त्ता थे। वो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक छात्र के रूप में गये थे लेकिन अपने छात्र जीवन के बाद भी वो परिसर के निकट ही रहे।