‘गिद्ध’ प्रसिद्ध मराठी नाटककार एवं लेखक विजय तेंडुलकर के एक मराठी नाटक ‘गिधाड़े’ का हिन्दी अनुवाद है। अनुवादक हैं वसंतदेव देसाई। विजय तेंडुलकर ने 27 नाटक और 25 एकांकी लिखे जिनमें से ‘शांतता! कोर्ट चालू आहे‘ और ‘घाशीराम कोतवाल‘ काफी लोकप्रिय रहे।

‘गिद्ध’ मूलतः एक परिवार की कहानी है जिसे नाटक पढ़े जाने के बाद ‘परिवार’ शब्द से सम्बोधित करना किसी भी पाठक के लिए मुश्किल होगा। पपा, उनके दो बेटे- रमानाथ और उमानाथ, बेटी माणिक, प्रचलित भाषा में उनका ‘नाजायज़’ बेटा रजनीनाथ और रमानाथ की पत्नी रमा।

रमा और रजनीनाथ को छोड़कर घर के सभी लोग निहायती स्वार्थी, लालची और बदतमीज़ हैं। न किसी को ज़ुबान की फ़िक्र, न भावनाओं की। उनमें से भी रमानाथ और उमानाथ खास तौर से वे पात्र हैं जिनके लिए नाटक का शीर्षक सार्थक दिखाई देता है। दोनों पैसे और ऐशो-आराम की फ़िक्र में पहले अपने पिता को मारकर घर से निकल जाने पर मज़बूर कर देते हैं और बाद में अपनी बहन माणिक के प्रेम प्रसंग पर भी अपने लालच की परछाई डालने से नहीं हिचकिचाते। उसकी टांग तोड़कर और उसके गर्भवती होने की खबर के ज़रिए उसके प्रेमी से पैसे हड़पने की साज़िश रचते हैं। इन सभी कुचक्रों के बीच फंसी है घर में चुप-चाप सब कुछ सहती रमा और बाहर गैराज में रहने वाला रजनीनाथ।

Gidhade

रजनीनाथ चूँकि रमानाथ, उमानाथ और माणिक का सौतेला भाई है, इसलिए इन तीनों ने उसे अपने जीवन से अलग कर रखा है। रमा रजनीनाथ के लिए घरवालों से छिपकर कभी चाय ले आती तो कभी उसका हाल-चाल जान आती। रमा और रजनीनाथ एक दूसरे के लिए इस घर में अभी तक रह पाने का एकमात्र कारण दिखाई देते हैं। रमा जहाँ केवल रजनीनाथ से ही हंसती-बोलती तो वहीं रजनीनाथ के लिए भी इस घर में केवल रमा ही है जिसे वह अपना समझता है। रजनीनाथ अक्सर रमा को अपने पास आने से मना कर देता, उससे सही से बात भी नहीं करता। उसे डर है कि बाकी घरवालों को पता लगा तो रमा के लिए भी मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। लेकिन रमा अनुसना कर देती है।

रमा का रजनीनाथ के प्रति यह स्नेह और उसके पति रमानाथ की गिद्ध प्रवृति ही रमा के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप बनकर सामने आते हैं।

‘गिद्ध’ जहाँ एक तरफ समाज में पारिवारिक मूल्यों के खत्म होते दौर को दिखाता है तो वहीं यह रमा जैसे कोमल हृदय मनुष्य का इंसान रूपी गिद्धों के बीच ज़िन्दगी बसर करने की विवशता की कहानी भी है।

“हिरनी जैसी अबोध.. धरणी जैसी स्नेहमयी.. असाढ़ की पहली फुहार जैसी.. निर्मल, शर्मीली लजीली.. एक पल खिलखिलाती, दूसरे पल खलभलाती.. और पल भर में आँसुओं के अथाह सागर में डूबती, उतराती.. भावुक, नाज़ुक.. मोह जगाती एक प्रतिमा.. जैसे फूल हो हरसिंगार का या सपना भोर का.. जो कभी खत्म ही न हो..”

‘ठूँठ भावों की कठपुतली’ रमा घर में केवल उस तरह नज़र आती है जैसे बगीचे में से जानवरों के उत्पात के निशान मिटाता एक माली, जिससे वह अपने मालिक को यकीन दिला सके कि सब कुछ सही है और उसने बगीचे की देखभाल अच्छी तरह की है। रमा जैसी मालिन के लिए उसका मालिक भी उसका अपना ही हृदय है, जिसे उसे हर पल यकीन दिलाना है कि यह जगह अब भी रहने लायक बची है और भविष्य में शायद सब कुछ अच्छा हो।

नाटक में पात्रों की भाषा गिद्धों के चीत्कार सी कर्कश और वीभत्स है, जिसे पात्रों की दिमागी संरचना को ध्यान में रखे बगैर खारिज़ नहीं किया जा सकता।

“आइडिया साला! गिरा देंगे। गिरा देंगे साला। गिरा देंगे। दोगली औलाद साली। तू चल। महाराज की औलाद को खत्म कर देंगे साला। तू चल पहले। साला चिल्लाने दे माणिक को गला फटने तक। क्या चिल्लाएगी साला! तमाशा साला! गिरा देंगे। महाराज को पेट में छिपाती है साला.. चल तू ब्रदर.. चल..”

परंपरागत रूप से नाजायज़ रिश्ते, यौन संबंध और हिंसा जैसे विषय भारतीय समाज के किसी परिवार से जोड़कर नहीं दिखाई जाते और इन विषयों को उनके अकृत्रिम रूप में दिखाने की वजह से विजय तेंडुलकर के इस नाटक को काफी आलोचना का सामना भी करना पड़ा। इस नाटक की रंगमंच प्रस्तुति को लेकर भी कई विवाद खड़े होते आए हैं। गर्भपात और हिंसा जैसे दृश्य दर्शकों को असहज जान पड़ते हैं। लेकिन ज़रूरत है इस असहजता को संकीर्ण सोच में ढलने से रोके जाने की। क्योंकि नाटक में उठाए गए विषय इसी कुरूपता के साथ समाज में व्याप्त हैं और जब तक इन विषयों को बिना किसी आवरण के नहीं देखा जाता, इन पर की गई कोई भी चर्चा समाधान का रुख नहीं कर पाएगी।

घरेलू हिंसा से लेकर, सामाजिक बंधनों की परवाह न करते हुए दो इंसानों के बीच स्वाभाविक रूप से पनप जाने वाले प्रेम तक जाने वाला यह नाटक पाठकों के मन को झकझोर कर रख देता है। बेबाकी से अपनी बात प्रस्तुत करना विजय तेंडुलकर के लेखन की विशेषता रही है और गिद्ध (गिधाड़े) इसका एक और सशक्त प्रमाण है।

पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!