‘Girls College Ki Lari’, poetry by Jan Nisar Akhtar
“‘गर्ल्स कॉलेज की लारी’ जाँ निसार अख़्तर की पहली नज़्म है जिसने उन्हें ख्याति की सीढ़ी पर ला खड़ा किया। यह एक वर्णात्मक (Narrative) नज़्म थी और जाँ निसार अख़्तर के कथनानुसार ‘जवानी की एक शरारत’ के सिवा कुछ न थी। फिर भी यह नज़्म शैली और अपनी रोमांटिक कैफ़ियत के कारण पढ़ने वालों के लिए बड़ी आकर्षक सिद्ध हुई।
इस नज़्म के सम्बन्ध में एक दिलचस्प घटना भी घटी। 1935 ई. में इस नज़्म के प्रकाशन के कुछ दिन बाद अलीगढ़ विश्वविद्यालय के मॉरिस हॉल में एक मुशायरा था। ‘अख़्तर’ को जब स्टेज पर बुलाया गया तो हॉल में ‘गर्ल्स कॉलेज की लारी’ सुनाने की फ़र्माइश गूँज उठी। हॉल की गैलरी चूँकि स्कूल और कॉलेज की लड़कियों से भरी हुई थी इसलिए ‘अख़्तर’ यह नज़्म सुनाने से कतराते रहे। लेकिन जब सभापति ने भी आग्रह किया तो कोई चारा न पाकर ‘अख़्तर’ को नज़्म शुरू करनी पड़ी। चार-छः शेर ही पढ़े होंगे कि गैलरी से लड़कियों की सुपरवाइज़र ने सभापति के पास पर्चा भेजा कि ‘अख़्तर’ यदि यह नज़्म न पढ़े तो उचित होगा। ‘अख़्तर’ ने तो नज़्म अधूरी छोड़ दी लेकिन हॉल में एक ऊधम मच गया। हर कोई यह नज़्म सुनना चाहता था। नौबत यहाँ तक पहुँची कि मुशायरा ही बंद करना पड़ा।
इस घटना के चार-छः दिन बाद जब ‘अलीगढ़ मैगज़ीन’ प्रकाशित हुआ और उसमें ‘अख़्तर’ की एक नज़्म ‘अब भी मेरे होंटों पे हैं बे-गाये हुए गीत’ छपी तो लोगों ने समझा कि ‘अख़्तर’ ने उस नज़्म के रोके जाने की प्रतिक्रिया के रूप में यह नज़्म कही है। अतःएव उसकी एक पंक्ति ‘कमबख़्त ने गाने न दिया एक भी गाना’ गर्ल्स कॉलेज में इतनी मक़बूल हुई कि स्थायी रूप से लड़कियों की उस सुपरवाइज़र का संक्षिप्त नाम (Nickname) ‘कमबख़्त’ पड़ गया।”
उपरोक्त्त किस्सा प्रकाश पंडित के जाँ निसार अख़्तर से सम्बंधित एक वक्तव्य से लिया गया है और नीचे जाँ निसार अख़्तर की इसी नज़्म का एक हिस्सा प्रस्तुत है-
गर्ल्स कॉलेज की लारी
फ़ज़ाओं में है सुब्ह का रंग तारी
गई है अभी गर्ल्स कॉलेज की लारी
गई है अभी गूँजती गुनगुनाती
ज़माने की रफ़्तार का राग गाती
लचकती हुई सी, छलकती हुई सी
बहकती हुई सी, महकती हुई सी
वो सड़कों पे फूलों की धारी-सी बुनती
इधर से उधर से हसीनों को चुनती
झलकते वो शीशों में शादाब चेहरे
वो कलियाँ-सी खुलती हुई मुँह-अंधेरे
वो माथों पे साड़ी के रंगीं किनारे
सहर से निकलती शफ़क़ के इशारे
किसी की नज़र से अयाँ ख़ुशमज़ाक़ी
किसी की निगाहों में कुछ नींद बाक़ी
किसी की नज़र में मोहब्बत के दोहे
सखी री ये जीवन पिया बिन न सोहे
ये खिड़की से रंगीन चेहरा मिलाये
वो खिड़की का रंगीन शीशा गिराये
ये चलती ज़मीं पे निगाहें जमाती
वो होंठों में अपने क़लम को दबाती
ये खिड़की से इक हाथ बाहर निकाले
वो ज़ानू पे गिरती किताबें सँभाले
किसी को वो हर बार त्योरी-सी चढ़ती
दुकानों के तख़्ते अधूरे से पढ़ती
कोई इक तरफ़ को सिमटती हुई-सी
किनारे को साड़ी के बटती हुई-सी
वो लारी में गूँजे हुए ज़मज़मे से
दबी मुस्कुराहट सुबक क़हक़हे से
वो लहजों में चाँदी खनकती हुई-सी
वो नज़रों से कलियाँ चटकती हुई-सी
सरों से वो आँचल ढलकते हुए से
वो शानों से साग़र छलकते हुए से
जवानी निगाहों में बहकी हुई सी
मोहब्बत तख़य्युल में बहकी हुई सी
वो आपस की छेड़ें वो झूठे फ़साने
कोई इनकी बातों को कैसे न माने
फ़साना भी उनका तराना भी उनका
जवानी भी उनकी ज़माना भी उनका..।
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