जिस बरगद की छाँव तले रहता था मेरा गाँव
वह बरगद ख़ुद घूम रहा अब नंगे-नंगे पाँव।
रात-रात भर इस बरगद से क़िस्से सुनते थे
गली, द्वार, बाड़े के बिरवे जिनकी गुनते थे
बाखर-बाखर कहीं नहीं थी कोई भी खाई
पशु-पक्षी, मौसम, जड़-चेतन थे भाई-भाई
किंतु अचानक उलटी-पलटी सम्बन्धों की नाव।
वह बरगद ख़ुद घूम रहा अब नंगे-नंगे पाँव।
इस बरगद का हाल देखकर अम्मा रोती है
भूख खेत में, खलिहानों में अब भी सोती है
नहा रही कीचड़, पानी से घर की मर्यादा
चक्रवात चाहे जब उठते, पहले से ज़्यादा
हुए बिवाई से घायल अब चंचलता के पाँव।
वह बरगद ख़ुद घूम रहा अब नंगे-नंगे पाँव।
भौजी अब ममता के बदले देती है गाली
दूर-दूर तक नहीं दीखती मन में हरियाली
चौपालों से उठीं बरोसी, आँगन से पानी
दूर-दूर तक नहीं सुनाती कबिरा की बानी
कथनी-करनी न्यारे-न्यारे चलते ठाँव-कुठाँव।
वह बरगद ख़ुद घूम रहा अब नंगे-नंगे पाँव।
पंचायत पर पंच परोसे, शासन भी वादे
राजनीति ने बड़े-बड़े कर, कर डाले आधे
शहरों से पुरवा का बढ़ता सम्मोहन दूना
मुखिया मुख ढाँके विवेक पर लगा रहे चूना
लरिकाई की प्रीत न रच पाती अब मीठे दाँव।
वह बरगद ख़ुद घूम रहा अब नंगे-नंगे पाँव।
धीरे-धीरे सीलन घर के घर खा जाती है
आपस में मिलने की गर्मी असर न पाती है
समा रहा दलदल के जबड़े में पूरा खेड़ा
सब मिल अब ऊँची धरती पर रख लो ये बेड़ा
गूँजे कूक प्यार की घर-घर, रहें न काँव-काँव।
जिस बरगद की छाँव तले रहता था मेरा गाँव
वह बरगद ख़ुद घूम रहा अब नंगे-नंगे पाँव।
प्रेमशंकर रघुवंशी की कविता 'स्त्री'