गली में दूर से क़रीब आती हुई,
बाँसुरी की एक धुन पड़ी कानों में,
शायद कोई गुब्बारेवाला था,
जो तेज फूँक मारकर बाँसुरी में
आवाज़ देता है जैसे मासूम बच्चों को,
जो दिला सकते हैं
उसके बच्चों की पढ़ाई,
उसे घेरे सब रोगों
और परेशानियों की दवाई।
वो नहीं चिल्लाता गुब्बारे ले लो, गुब्बारे ले लो।
वह बस बजा देता एक धुन,
पर वह केवल एक धुन ही नहीं होती,
वह होती है एक मौन पीड़ा, एक रुदन,
एक वेदना, एक व्यथा
और एक क्रंदन,
जो कभी बाँसुरी के सुराख़ों
से बाहर आकर
बहने लगती है निर्द्वन्द,
और कभी,
निशब्द सी उसमें छिपी रहती है,
जो उसके होठों से निकलकर
बाँसुरी तक पहुँचते ही
बदल जाती है,
एक सुरीली आवाज में।

छोटे तबके या मध्यम वर्गीय को
यह धुन अक्सर सुरीली लगती है,
और दौड़ा देते हैं वो बच्चों को अपने
उस गुब्बारे वाले के पीछे,
दो रुपया, पाँच रुपया, दस रुपया
थमाकर उन नन्हें हाथों में,
फुसफुसाते हैं उनके कानों के गलियारों में
जो सीधे उनके हृदय के द्वार तक जा पहुँचता है,
और कभी कह देते हैं भारी,
मगर दुलार भरी ज़ुबान में,
उन पंछियों से,
कि जाकर चुन लें
वो खुशियाँ अपनी अपनी।
उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को
ये स्वर लगता है,
बड़ा ही कर्कश और उबाऊ
और बेहद निम्न स्तर का,
और वो बच्चों को अपने
झाँकने, ताकने और एक झलक
लेने से भी कहते हैं परहेज़ को,
फिर लुभाते हैं,
कोमल उनके मन को
देकर विभिन्न प्रलोभन,
बड़े-बड़े खिलौनो का,
और जाल रूपी
आधुनिक मॉल का।

फिर ज़िंदगियाँ तमाम
गुब्बारेवालों की, झूलती रहती हैं,
तंगी और भूखमरी के हिंडोले में
और साथ उनके,
डगमगाती रहती हैं
उनके बच्चों, परिवारवालों की ज़िंदगियाँ।
सोचती हूँ मैं कभी-कभी कि
कैसे होते होंगे बच्चे उनके,
और कितना विशाल होता होगा,
हृदय उनका
जो पिता से मिले गुब्बारों
को लौटाकर
माँगते होंगे,
दुख, दर्द पिता का,
उनकी पत्नी और अपनी माँ की दवाई।

अनुपमा मिश्रा
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