‘Paji Nazmein’, poetry by Gulzar

कहा गया है कैबिनेट के सब वज़ीर

कहा गया है कैबिनेट के सब वज़ीर अपने-अपने राज़ीनामे भेज दें
वज़ारतें बदल के सबको, फिर से बाँटी जाएँगी।

हमारी दादी भी लिहाफ़ का ग़िलाफ़
जब भी मैला होता था,
सारे टाँके खोलकर,
उलट के कपड़ा, फिर से उसको सीती थीं।

एक सुबह जब इश्क़ हुआ था!

चार बजे थे सुबह के, जब इश्क़ हुआ था
एक पहाड़ से उतर रहे थे, लौट रहे थे शूटिंग से
कोहरा था, धुँधली-धुँधली सी रौशनी थी
कार की दोनों बत्तियाँ आँखें मल-मल के राह ढूँढ रही थीं

नींद में तुम कन्धे से फिसल के
बाँहों में जब भरने लगी थीं
मैंने अपने होंट तुम्हारे कान पे रखके फूँका था
“ऐ तू माला खूब आवड़ते…!”
नींद में भी तुम थोड़ा-सा मुस्काई थीं

वक़्त इबादत का था वो,
सच कहने की बेला थी
चार बजे के आसपास का वक़्त था वो
एक सुबह जब इश्क़ हुआ था!

इक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने!

इक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
गोल तपाई के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
शाम से बैठा,
नज़्म के हल्के-हल्के सिप मैं घोल रहा था होंठों में
शायद कोई फ़ोन आया था…
अन्दर जाके, लौटा तो फिर नज़्म वहाँ से ग़ायब थी
अब्र के ऊपर-नीचे देखा
सुर्ख़ शफ़क़ की जेब टटोली
झाँक के देखा पार उफ़क़ के
कहीं नज़र न आई, फिर वो नज़्म मुझे…

आधी रात आवाज़ सुनी, तो उठ के देखा
टाँग पे टाँग रखे, आकाश में
चाँद तरन्नुम में पढ़-पढ़ के
दुनिया-भर को अपनी कह के नज़्म सुनाने बैठा था!

डिक्लेरेशन

मैं जब लौटा वतन अपने…
यहाँ कस्टम के काउंटर पर खड़े सरकारी अफ़सर ने
मेरा सामान जब खोला…
मेरे कपड़े टटोले, मुझसे पूछा भी,
“कोई शै ग़ैरमुल्की है?
जिसका लाना ग़ैरवाजिब हो?
‘बयाननामे’ पे लिख के दस्तख़त कर दो!”

मैं सब कुछ ला नहीं सकता था तेरे मुल्क से लेकिन
मैं तेरी आरज़ू को रोक न पाया, चली आयी
मुनासिब तो नहीं फिर भी…
‘बयाननामे’ पे तेरा नाम लिख के, कर दिये हैं दस्तख़त मैंने!

चिपचे दूध से नहलाते हैं आँगन में खड़ा कर के तुम्हें

चिपचे दूध से नहलाते हैं आँगन में खड़ा कर के तुम्हें
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, न जाने क्या क्या
घोल के सर पे लँढाते हैं गिलसियाँ भर के…

औरतें गाती हैं जब तीवर सुरों में मिल कर
पाँव पर पाँव लगाये खड़े रहते हो इक पथराई-सी मुस्कान लिये
बुत नहीं हो तो, परेशानी तो होती होगी!

जब धुआँ देता, लगाता पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छोंके देकर
इक ज़रा छींक ही दो तुम,
तो यक़ीं आये कि सब देख रहे हो!

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गुलज़ार
ग़ुलज़ार नाम से प्रसिद्ध सम्पूर्ण सिंह कालरा (जन्म-१८ अगस्त १९३६) हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध गीतकार हैं। इसके अतिरिक्त वे एक कवि, पटकथा लेखक, फ़िल्म निर्देशक तथा नाटककार हैं। गुलजार को वर्ष २००२ में सहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष २००४ में भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है।